Saturday 16 June 2018

बिहार बोर्ड

बिहार के छात्रों को गणित जैसे विषयों में अच्छा माना जाता है क्योंकि यहाँ के कई छात्र कड़ी प्रतिस्पर्धा पार कर के, इंजीनियरिंग की (शायद) दुनिया की सबसे कठिन प्रतियोगिता परीक्षा पास कर जाते हैं। ये सीधे तौर पर उनकी मेहनत और उनके परिवार का योगदान माना जाना चाहिए। इसमें बिहार सरकार की नौकरी करते शिक्षकों का रत्ती भर भी योगदान नहीं होता। बिहार में जब 2011 में स्टेट टीचर एलिजिबिलिटी टेस्ट हुआ तभी बिहार के शिक्षा व्यवस्था की पोल खुल गई थी। बिहार के विश्वविद्यालयों से स्नातक और परा स्नातक तक की तथाकथित “पढ़ाई” कर चुके लगभग सभी इस परीक्षा में फेल कर गए थे। भौतिकी (फिजिक्स) में सिर्फ आठ पास कर पाए थे।
तब से अब तक गंगा, कोसी, गंडक, बागमती, सबमें काफी पानी बह चुका, लेकिन हालात कुछ ख़ास नहीं बदले हैं। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से बिहार की करीब 28% आबादी 5 से 14 वर्ष के आयु-वर्ग में है। इनमें से सिर्फ पांच प्रतिशत ऐसे हैं जो स्कूल नहीं जाते। सन 2015 के मानव संसाधन विकास मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि प्राइमरी से उच्च प्राइमरी में 85% बच्चे पहुँच पाते हैं। ये आंकड़ा लगातार कम होता जाता है और सेकेंडरी स्कूल पहुँचते पहुँचते इसका सीधा आधा हो जाता है। 2015-16 के बिहार इकनोमिक सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि पहली कक्षा में भर्ती होने वाले बच्चों में से केवल 38% ही दसवीं कक्षा से पास होते हैं। शिक्षा में ऐसी गिरावट क्यों है?
इसके लिए सीधे तौर पर शिक्षकों की कमी और शिक्षा पर सरकार का ध्यान ना देना जिम्मेदार है। कक्षा 1 से 8 तक प्रति कक्षा जहाँ छात्रों की गिनती का राष्ट्रिय औसत 27 है, वहीँ बिहार में ये करीब दोगुने, यानि 51 पर था। ये गिनती 2012-13 के 65 से घटकर 2015-16 में 51 पर आई थी, लेकिन अभी भी ये राष्ट्रिय औसत के मुकाबले नहीं ठहरती। कोई आश्चर्य नहीं कि 2011 की जनगणना के आंकड़े जब देश में शिक्षितों का औसत 74% बताते हैं तो बिहार आकर ये आंकड़ा 64.8% पर ही ठहर जाता है। 2015 के आस पास के ही प्रति छात्र खर्च का आंकड़ा देखें तो ये और स्पष्ट हो जाता है। केन्द्रीय विद्यालयों (सेंट्रल स्कूल) में 2015 में प्रति छात्र 27723 रुपये का औसत खर्च था और इसी दौर में बिहार राज्य के विद्यालयों में ये खर्च 5298 रुपये था।
आप किस पक्ष से बात कर रहे हैं, उसपर निर्भर है कि शिक्षा की ऐसी दुर्दशा के लिए किसे जिम्मेदार बताया जाएगा। अगर शिक्षकों से पूछें तो वो कहते हैं कि आप अपने घर में पचास लोगों को किसी दावत में आमंत्रित करते हैं तब तो काम से छुट्टी लेते हैं। हमसे अपेक्षा की जाती है कि हर रोज़ मिड-डे मील में 100, 200, 500 लोगों के भोजन की व्यवस्था भी सुचारू रखें और उतने ही समय में पढ़ा भी लें! ये कैसे संभव है? सुबह जो शिक्षक इलाके को खुले में शौच से मुक्त कराने निकला है, वो स्कूल आकर पढ़ा भी ले, ये कितना संभव लगता है? मतदान की पंचायती से शुरू होकर लोकसभा तक की चुनावी व्यवस्था हो या जनगणना, काम उसमें शिक्षक ही करेगा, मगर पढ़ाई बंद ना हो, ये कितना संभव है?
राजनीतिज्ञों को ज्यादातर अपने वोट बैंक से मतलब होता है। 5 से 14 साल के बच्चे मतदान तो करेंगे नहीं, तो भला इस 28 फीसदी आबादी की परवाह ही क्यों की जाए? बहुत कम कर के भी आँका जाए तो बिहार में सिर्फ सेकेंडरी और हायर सेकेंडरी स्तर पर कम से कम 18,000 शिक्षकों की जरूरत है। विभागीय अधिकारी बताते हैं कि वो बेरोजगार इंजिनियरों को शिक्षक के रूप में बहाल करने पर विचार कर रहे हैं। अख़बारों की मानें तो अधिकारी अभी तमिलनाडु और केरल जैसे दक्षिणी राज्यों के शिक्षा के मॉडल का अध्ययन भी कर रहे हैं। समस्या सिर्फ शिक्षकों की गिनती, स्कूल की हालत जैसी चीज़ों तक ही सीमित हो ऐसा भी नहीं है। जो छात्र बिहार बोर्ड से पास कर के निकले हैं उनका क्या होगा ये भी सोचने लायक है।
इस वर्ष बिहार में ही मौजूद जो सी.बी.एस.ई. बोर्ड के स्कूल हैं उनसे करीब 1,12,000 छात्र-छात्राओं ने परीक्षा पास की और लगभग 32,000 ऐसे थे जो 90% से ऊपर अंक लाये। आई.सी.एस.ई. के काफी कम स्कूल हैं तो भी (लगभग ), 2000 में से 900 इस 90% के लक्ष्य को पार कर गए। बिहार बोर्ड के छात्रों को भी नंबर ज्यादा आयें, इसके लिए प्रश्नों का तरीका बदल कर सी.बी.एस.ई. जैसा करने के प्रयास किये गए थे। अब 50% वस्तुनिष्ठ प्रश्न होते हैं, जिनमें अंक कम आने की कोई संभावना नहीं, या तो पूरे आयेंगे, या सीधा शून्य। इसके बाद भी एन.ई.ई.टी. की टॉपर कल्पना कुमारी जहाँ प्रतियोगिता में 99% का आंकड़ा पार कर जाती है, बिहार के शिक्षक उसे 86.8% ही अंक दे पाते हैं।
पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश के बोर्ड से करीब 14000 ऐसे हैं जो नब्बे प्रतिशत से ज्यादा अंक लाये, करीब 7000 मध्य प्रदेश बोर्ड से। ऐसे में बिहार बोर्ड का छात्र जब सेंट स्टीफेंस में दाखिला लेने की कोशिश करेगा तो क्या मिलेगा उसे? जिन छात्राओं को साइकिल देकर स्कूल और शिक्षा का सपना दिखाया गया क्या उन्हें भी एल.एस.आर और मिरांडा हाउस के सपने देखने का हक़ है?जे.पी. के आन्दोलन और उससे जन्मे तथाकथित नायकों ने बिहार की शिक्षा व्यवस्था की ऐसी दुर्दशा की है कि पिछले पचास वर्षों में बिहार से निकले लोग आई.ए.एस. बने, इंजिनियर बने, डॉक्टर बने, लेकिन उन्होंने पलट कर बिहार की तरफ देखा तक नहीं।
इन पचास वर्षों में बिहार में क्या हो रहा था उसपर लिखी किताबें ढूंढ लेने की कोशिश कर के देखिये। इन पचास वर्षों पर लिखी गई पचास ढंग की किताबों का नाम विरला ही कोई जुटा पायेगा। नहीं जुटा पायेगा, इसपर हमें इतना भरोसा इसलिए है क्योंकि इन वर्षों में बिहार में 500 से अधिक पुस्तकालय भी बंद हो चुके हैं। जहाँ पुस्तकालय ही नहीं वहां किस से पूछ कर किताबों के नाम बताएँगे? पलायन का दंश आधा राज्य बाढ़ की वजह से झेलता है। पलायन का ही दंश आधा राज्य सुखाढ़ के कारण झेलता है। पूरा राज्य भूकंप का असर भी झेलता है। क्या नहीं करना चाहिए ये सीखने के लिए बिहार सबसे अच्छी जगह है। क्या-क्या नहीं करना चाहिए, वो तो आप जरूर सीख जायंगे।

आनंद कुमार

हमारी पहचान


" पेरिस जरूर जाईयेगा "
यूरोप जाने वाले यात्रियों को यह सलाह दोस्तों परिवार के सदस्यों द्वारा जरूर दी जाती है ! ऐसी ही कुछ बात मेरे साथ भी हुई थी ! जब मैं पहली बार पारिवारिक कार्य से नीदरलैंड्स जा रहा था ! और पेरिस जाना मतलब एफिल टॉवर को देखना ! यूरोपीय टूर ओपरेरटर के हर पैकेज में पेरिस अमूमन होता है और तकरीबन हर पर्यटक के लिए यह एक हॉट डेस्टिनेशन है ! यहां हमारा ध्यान इस बात की और नहीं जाता की कोई भी फ्रांस की बात नहीं करता ! दुनिया में कुछ एक ही स्थान -शहर-नगर -राज्य ऐसे हैं जो अपनी पहचान अपने संबंधित देश से अधिक रखते हैं ! वे अकेले अपने नाम से जाने जाते हैं ! ऐसा ही एक डेस्टिनेशन दुबई भी है ! वहाँ जाने वाला कभी नहीं कहता की वो यूएई जा रहा है !
बहरहाल मैं भी समय निकाल कर पेरिस पहुंच गया था ! सबसे पहले तो एयरपोर्ट ने बहुत निराश किया था, और कोई क्यों ना होये , इससे बेहतर तो भारत में अब कई हैं ! उसके बाद होटल ने तो पूरा मूड खराब कर दिया था ! इतना छोटा कमरा की भारत के अनेक नगरों की अनगिनत धर्मशालाओं के रूम भी बेहतर होंगे ! ऊपर से इतना महंगा की उसी रेट में यूरोप के किसी भी शहर में उससे कहीं बेहतर कमरे मिल जाएंगे ! ऐसे में होटल रिसेप्शन वालों के रूखे व्यवहार ने मुझे विचलित किया था ! पहले पहल तो लगा की वे शायद मेरे श्याम रंग के कारण मुझसे ऐसा व्यवहार कर रहे हैं ! मगर बाद में पता चला की तकरीबन हर फ्रांसीसी श्रेष्ठता की बीमारी से ग्रसित है और उसके भीतर ऐंठ के कीटाणु किसी ऐतिहासिक रोग की तरह जन्म से ही विद्यमान् होते हैं और ये इसी संक्रामक रोग के कारण सभी से ऐसा ही व्यवहार करते हैं ! मेरे भीतर एफिल टावर को लेकर इतनी उत्सुकता पैदा कर दी गई थी की मैं इन सब बातों को इग्नोर करके सो गया और अगले दिन सुबह सुबह ही एफिल टॉवर पहुंच गया ! सामने लोहे का एक भारी भरकम टॉवर था ! मगर इसमें ऐसा क्या अद्वितीय है जिसको लेकर पूरी दुनिया में शोर है ? पहली प्रतिकिया यही थी और अंत तक यही बनी रही ! ठीक ही तो सोच रहा था , लोहे का टावर ही तो है , ऐसे तो अब हर बड़े शहर में कोई ना कोई छोटे-बड़े टावर मिल ही जाएंगे ! और फिर एफिल टावर कोई बिफोर क्राइस्ट तो बना नहीं की हैरान करे ! पता किया तो पता चला की १८८० -९० में बना है ! अर्थात मात्र सवा सौ साल पुराना ! तब तक की भी दुनिया कोई इतनी भी पिछड़ी नहीं थी की एक लोहे के टावर पर दातों तले अंगुली दबाये ! बहरहाल मैंने चारो और कई चक्कर लगाए की शायद किसी एंगल से ऐसा कुछ दिखे की लोगो का पागलपन समझा जा सके ! मगर हर एंगल से जब निराश हो गया तो एक जगह बैठ कर सोचने लगा की कहीं एफिल टावर ओवर रेटेड तो नहीं ! मैंने अपनी जुबान बंद ही रखी थी ! कही कोई मुझे पिछड़ा ना घोषित कर दे ! चारो ओर नजर डाली , व्यवस्था के नाम पर भी तथाकथित पेरिस वाली कोई बात नजर नहीं आयी ! पर्यटकों की इतनी रेलमपेल भीड़ के लिए एक ही शौचालय था ! जिसके सामने लम्बी कतार थी ! अर्थात इस मामले में भी भारत की व्यवस्था आजकल अधिक संवेदनशील है ! खैर , अगले दो दिन पेरिस की गलियॉं में घूमता रहा मगर मुझे ऐसा कोई स्थान नजर नहीं आया जिसे लेकर मैं एन इवनिंग इन पेरिस जैसी कोई फीलिंग अपने अंदर पैदा कर सकूं ! बताया गया था की पेरिस दुनिया की फ़ैशन और ग्लैमर की राजधानी माना जाता है। घुमक्कड़ हूँ, मुझे याद आया कनाडा में मॉन्ट्रियल स्थित सेंट कैथरीन रोड जो हर तरह से यहां से अधिक ग्लैमरस है ! मॉन्ट्रियल याद आने के पीछे वजह थी की वो भी फ्रेंच संस्कृति के रूप में पहचाना जाता है ! और जहां तक रही बात नारी की सुंदरता की तो अगर सिर्फ सफेद रंग ही सुंदरता का पैमाना है तो ठीक, वरना पेरिस की किसी भी खूबसूरत महिला से कहीं अधिक सुंदर और रूपवान भारत मां की बेटियां हैं ! और ये सिर्फ किसी बॉलीवुड के परदे पर नकली नहीं बल्कि साक्षात किसी भी महानगर से लेकर कसबे और गांव में मिल जाएंगी !
अंत में थक हार कर मैं सीन नदी के तट पर बैठ गया था ! हाँ चुम्बन लेते जोड़े सड़को पर आम दिख जाते , मगर यह मेरे लिए उछ्रंखलता है ! मैं इस पर अभी अपना मत बना ही रहा था की सीन नदी के किनारे मुझे एक स्थान ऐसा मिला जहाँ ये जोड़े अपने प्रेम को स्थाई बनाने के लिए एक ताला खरीदते हैं और उसे वहाँ लगी एक जाली में लगा कर चाबी नदी में फेक देते हैं ! अरे यह तो एकदन हिंदी फिल्मो की तरह हुआ ! इसने तो मुझे हॅसने पर मजबूर कर दिया था ! प्रेम में भी इतना दोगलापन ! वैसे अभी मुझे अंतिम झटका लगना बाकी था ! मैं जब नदी किनारे टहल रहा था तो वहाँ मेरी निगाह एक ऐसी किताब पर पड़ी जिस पर भारतीय नारी का चित्र था ! यह कामसूत्र थी , फ्रेंच में ! मैंने किताब का दाम पूछा और दुकानदार ने जो कीमत माँगी , यह कहते हुए उसे दिया की इसके वो अगर डबल भी मांगता तो मैं उसे दे देता ! वो नहीं समझा होगा ,मैं उसे समझाना भी नहीं चाहता था , यहां तो मैं ऐसा करके अपने सांस्कृतिक अभिमान को सिर्फ सींचित कर रहा था ! और इस बिंदु पर आकर मेरे दिमाग से फ़्रांस का सारा नशा उतर चुका था ! वो जो गलियों में सरे आम प्रेमप्रदर्शन को ही अपनी आधुनिकता का पैमाना मानते हैं वे भी प्रेरित हैं कामसूत्र से ! वो क्या समझ पाएंगे कामसूत्र को ! असल में उनके लिए सेक्स मस्ती है हमारे लिए जीवन आनंद ! उनके लिए सेक्स सिर्फ सेक्स है जबकि हमारे लिए यह कला है योग है प्रेम है और संस्कार भी ! वो सेक्स से आगे नहीं देख पाते जबकि हम तो संभोग से समाधी तक पहुंच जाते हैं ! तभी मेरे मन ने अपने आप से कहा की एफिल टावर ही नहीं पेरिस भी ओवर रेटेड है ! और जब यह बात मैंने अपने कुछ मित्रों को बाद में बताई तो पाया उनके मन में भी ऐसा ही मत पहले से बना हुआ था !
आप सोच रहे होंगे की मैं आप को बेवजह पेरिस घुमा रहा हूँ ! जी नहीं ! जिस तरह से एफिल टावर फ़्रांस की पहचान बनाया गया है वैसा ही कुछ कुछ ताजमहल को भारत के लिए बनाया गया है ! आप का ताजमहल को लेकर क्या मत है ? मेरा तो कुछ कुछ एफिल टावर वाला ही मत रहा है ! आज से तीस साल पहले जब मैं ताजमहल पहली बार देखने गया तो वह मेरा उसे आखरीबार देखना था ! उस उम्र में भी वो मुझे अधिक प्रभावित नहीं कर पाया था ! और जब अब समझ थोड़ी थोड़ी बड़ी है तो यह समझ नहीं आता की ताजमहल को इतना ओवररेट क्यों और कैसे किया गया ? आज जब इसका जवाब ढूंढ़ने की कोशिश करता हूँ तो सर्वप्रथम मन में आता है की फ़्रांस के पास तो पेरिस और पेरिस में एफिल टावर के अतिरिक्त कुछ और विशेष नहीं है दिखाने के लिए मगर ऐसी स्थिति भारत की तो नहीं ! फ़्रांस के पास तो खींचतान के हजार दो हजार साल का इतिहास है हमारे पास तो कितना भी सीमित कर लो दस हजार साल का है ! तो फिर क्या वजह है जो ताजमहल को भारत का एफिल टावर बना दिया गया ? और फिर एफिल टावर तो फिर भी फ़्रांसीसी क्रांति के शताब्दी महोत्सव के दौरान आयोजित विश्व मेले का प्रवेश द्वार था , जिसके द्वारा फ्रांस अपनी तकनीकी की ऊंचाई को प्रदर्शित करना चाहता था ! मगर हम एक मकबरे के द्वारा क्या दिखलाना चाहते हैं ? अगर कोई इसे प्रेम का प्रतीक बतलाता और मानता है , यह एक अनपढ़ या अनजान के लिए तो ठीक है मगर किसी पढ़ेलिखे को जब शाहजांह की असलियत पता चलती होगी तो वो कहने वाले की मानसिकता पर जरूर प्रश्न चिन्ह लगाता होगा ! अगर कोई इसे अपना वैभव प्रदर्शन मानता है तो सच कहें तो यह हमारी गुलामी की निशानी है !
अगर इसका यह सच स्वीकार भी कर ले की यह शाहजांह द्वारा ही मूल रूप में प्रारम्भ से बनाया गया तो इसका निर्माण वर्ष १६५० के आसपास है ! अर्थात मात्र तीन चार सौ साल पुराना ! जिस सभ्यता के वैभवपूर्ण इतिहास को पश्चिम के विद्वान् भी दस हजार साल पुराना मान रहे हैं उसे क्या इतने लम्बे कालखंड के लिए कुछ और अपनी पहचान के लिए नहीं मिला ? एक तरह से विश्व पर्यटक के सामने ताजमहल को भारत की पहचान बना कर हम ने स्वयं अपने इतिहास को कितना छोटा कर लिया ! कहीं यह भी तुष्टीकरण तो नहीं ? यह एक अति सुंदर भवन-इमारत-महल-मकबरा तो हो सकता है मगर अद्वितीय कहीं से भी नजर नहीं आता ! यह कम से कम सनातन देश की पहचान तो बिलकुल नहीं हो सकता !
दुख इस बात का है की भारत के अति विस्तृत कालखंड के अनेक अद्भुत प्रतीक और पहचान को उन्ही मुगल आक्रमकारियों ने तहस-नहस कर दिया जिसके एक वंशज शाहजांह को ताजमहल बनाने का अतिरिक्त श्रेय दिया जाता है ! जबकि पांच सौ साल की भीषण मारकाट के बाद भी बहुत कुछ बचा है जो अब भी भारत की विशिष्ट पहचान बन सके ! यूं तो सनातन में भौतिक वैभव प्रदर्शन करने का जीवन दर्शन नहीं मगर फिर भी महान अशोक ने अनेक अद्भुत निर्माण करवाए थे ! मुगलो की अराजकता से कुछ ही बच पाए ! २३०० साल पूर्व बनाये गए विशेष स्तम्भ और दो हजार साल से अधिक समय से खुले आसमान के नीचे खड़ा लोह स्तम्भ, जो अब तक आधुनिक विज्ञान को हैरान किये हुए है की इसमें जंग क्यों नहीं लगी ! हो सकता है ये अति प्राचीन और विशिष्ट होते हुए भी विशाल ना होने के कारण आप को प्रभावित ना करें ! और अगर सिर्फ विशालता ही पैमाना है तो जो मैं अब उदाहरण देने जा रहा हूँ उसका नाम भी सामन्य भारतीय ने नहीं सुना होगा ! जब भारत में ही यह नाम प्रचलित नहीं तो विदेशी कैसे जान पाएंगे ! यह है महाराष्ट्र में एलोरा स्थित कैलाश मन्दिर ! संसार में अपने ढंग का अनूठा अद्वितीय अनुपम ! एलोरा की अनेक गुफाओं में से यह मंदिर सबसे सुदंर और प्राचीन है ! ये मंदिर सिर्फ एक पत्थर पर बना हुआ है ! इस मंदिर की स्थापत्य कला और कारीगरी आज भी हैरान करती है ! ध्यान रहे यह आज से कम से कम डेढ़ हजार साल पहले बनाया गया था !ऐसा आधुनिक विद्वान् कह रहे हैं जो भारत के इतिहास को अति प्राचीन मानना ही नहीं चाहते ! तो फिर मान लीजिये की यह उसके भी काफी पहले का होगा ! इस मंदिर को बनाते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा गया था कि यह कैलाश पर्वत की तरह ही दिखें।यह मंदिर केवल एक चट्टान को काटकर बनाया गया है। इसका निर्माण ऊपर से नीचे की ओर किया गया है। इसके निर्माण के क्रम में अनुमानत: ४० हज़ार टन भार के पत्थारों को चट्टान से हटाया गया। अर्थात इतने टन पत्थरों को काट कर इसे बनाया गया ! ना जाने इसे बनाने में कितने साल लग गए हों ? सबसे ज्यादा हैरानी की बात तो यह है की ये मंदिर दो मंजिला है। इस मंदिर को एक बार देखने से आपका मन नहीं भरेगा और आप यहां बार-बार आना चाहोगे। मगर विश्व को ताजमहल दिखाया जाता रहा है , क्यों ? क्या इसका जवाब लेना जरूरी नहीं ?
एलोरा की ये ३४ गुफाएँ हमारी पहचान हो सकती हैं ! क्यों नहीं हो सकती ? यह पाषाण काल से हमारी श्रेष्ठता का ज़िंदा प्रमाण है ! भारत का सनातन काल क्रम यही नहीं रुक जाता ! इससे भी पूर्व में , द्वितीय शताब्दी ई॰पू में बनी अजंता की गुफाएं हमारी प्राचीनतम चित्र एवम् शिल्पकारी का एक अनोखा प्रमाण है ! कला और दर्शन के लिए खजुराहो के मंदिर देख लो ! ये अलंकृत मंदिर मध्यकालीन सर्वोत्कृष्ठ स्मारक हैं ! इस अप्रतिम सौंदर्य के प्रतीक को देखने के लिए कोई भी बार बार आना चाहेगा ! यहां संभोग की विभिन्न कलाओं को देखकर फ़्रांस को भी अपनी आधुनिकता पर सदेह होने लगेगा ! इसके निर्माण के पीछे एक पूरा दर्शन है ! जो कामसूत्र से शुरू होकर जीवन सूत्र तक पहुँचता है ! कैलाशनाथ मंदिर कांचीपुरम से लेकर कोणर्क सूर्य मंदिर ! दक्षिण में ऐसे अनगिनत मंदिर हैं , जहां ये सूची कभी ना खत्म होने वाली है ! जबकि इसे छोटी करने की हर सम्भव कोशिश की गई , मुगलों द्वारा ! उन्ही आक्रमणकारी मुगलों द्वारा ,जिनके एक ताजमहल पर आधुनिक भारत को लहालोट हो जाने के लिए मजबूर किया जाता है !
उपरोक्त दर्शाये अद्भुत निर्माणों में से कोई भी किसी राजा विशेष के किसी व्यक्तिगत चाहत का परिणाम नहीं है ! ना ही इसे बनाने वाले किसी भी राजा ने इन्हे अपने व्यक्तित्व निर्माण के उद्देश्य से बनाया था ! हमारे वैभवशाली इतिहास के श्रेष्ठ काल के ये कुछ उदारण हैं , ना जाने ऐसे ही कितने है जो अब भी इधर उधर अपनी पहचान देने के लिए तत्पर हैं ! इनमे से किसी को भी , दुनिया का कोई भी पर्यटक ओवररेटेड नहीं कह सकता !
मेरी आपत्ति ताजमहल से नहीं है शाहजांह से भी नहीं है , उनसे है जो शाहजांह और ताजमहल को हिन्दुतान की पहचान बताते आये हैं ! हे भारत के आधुनिक पुत्रों , यह देवभूमि है ,यह मानव सभ्यता के आदिकाल से चली आ रही एक समृद्ध संस्कृति है ,यहाँ आर्यों ने वेद रचा , एक ऐसा जीवन दर्शन जिसकी गहराई आज तक कोई नहीं नाप पाया ! यहां मृत शरीर को पंचतत्व में विलीन कर दिया जाता है ! मिट्टी के शरीर को मिट्टी मान लिया जाता है ! ऐसे जीवन दर्शन की पवित्र भूमि पर एक मृत शरीर के ऊपर ऐसा आडम्बरपूर्ण प्रदर्शन , हैरान करता है ! मृत पिरामिडों को हम कब से पूजने लगें ? अगर सम्राट को ही पूजना है तो इस देवभूमि पर श्रीराम और श्री कृष्ण जैसे अवतारी पुरुषों ने जन्म लिया ! ऐसे राजा मानव इतिहास में दूसरे नहीं हुए ! श्रीराम के आदर्श और श्रीकृष्ण के कर्म विश्व में अद्वितीय हैं ! यूं तो इनके नाम का स्मरण ही काफी है लेकिन अगर कही इनके सामने साक्षात् नमन होने का मन हो तो इनके जन्मस्थल दूर नहीं ! ये अयोध्या और मथुरा मात्र नगर नहीं है , ये हैं भव्य भारत की दिव्य पहचान ! एक बार आधुनिक युग को इनके बारे में बता कर तो देखों , फिर चाहे कोई भी धर्म मजहब सम्प्रदाय का भारतीय होगा अपने पूर्वजो के इतिहास को जानकर गौरव करेगा और विदेशी नतमस्तक होगा !
Manoj Singh

जबकि ईश्वर ने उसे एक आदर्श गुरु होने के सभी गुण दे कर इस दुनिया में भेजा है !

" .... तो बेटा आईआईटी मुंबई में कंप्यूटर साइंस ले रहा होगा " बधाई देने के बाद मैंने कहा था !
' जी ! मगर आप को कैसे पता ? ' पिता के चेहरे से खुशी स्वाभाविक रूप से टपक रही थी !
" सुना है कि सभी टॉपर मुंबई आईआईटी के कंप्यूटर साइंस में ही जाते हैं , वहाँ शायद जनरल की ५० सीट है तो उसमे टॉप के पचास बच्चे ही तो जायेंगे !अब आप के बेटे की रैंक एडवांस जेईई में पचास के अंदर है तो उसको तो मिल ही जाएगा "
' सही कह रहे हैं आप ! मुझे तो इस बात की टेंशन शुरू से थी की रैंक किसी भी तरह से पचास के अंदर ही आनी चाहिए '
"और अगर रैंक ५१ हो जाती तो कौन सा पहाड़ टूट जाता ? " मेरे इस प्रश्न के बाद पिता के चेहरे से वो खुशी का तेज अचानक कुछ कम हुआ था , जवाब में कुछ बोले नहीं सिर्फ मुस्कुरा दिए थे !
"तो क्या मिठाई नहीं खिलाते ? " मेरी इस बात पर तो मानो वो खिसिया ही गए थे !
" अच्छा एक बात बताना यार , कि बेटा बचपन से जितना होशियार है हम सब जानते हैं, वो जो चाहेगा उसे तो वो मिलना ही है, मगर वो कंप्यूटर साइंस ही क्यों लेना चाहता है "
इसके जवाब में इतने घिसे पिटे तर्क दिए गए की मानो कोई टेप चला दिया गया हो ! मुझे जवाब से संतुष्ट न होता देख पिता ने बेटे से मिलवाया था मगर वो भी करीब करीब पिता के जवाब को ही रीपीट कर रहा था ! मानो कोई कंप्यूटर प्रोग्राम चला दिया गया हो ! ये कहानी सिर्फ इस बच्चे और इस पिता की ही नहीं है ! पूरा हिंदुस्तान ११ वी १२ वी में एक कम्प्यूटर प्रोग्राम की तर्ज पर ऑपरेट करने लगता है ! सभी कोचिंग सेंटर की ओर दौडते नजर आते हैं ! मानो एक तरफ से गधे डालेंगे दूसरी तरफ से घोड़े निकलेंगे ! यहां किसी सामान्य बच्चे की क्या बात करें जब एक होनहार की यह हालत है ! हिंदुस्तान के टॉप फिफ्टी में आने वाला एक छात्र कितना बुद्धिमान होगा किसी को बताने की आवश्यकता नहीं ! अगर उसके पास भी मेरे एक सरल सवाल का कोई मौलिक और स्पष्ट जवाब नहीं , तो साफ़ है कि वो भी भेड़चाल में शामिल है ! उसका इस तरह से भीड़ में चलना विडंबना ही कहेंगे !
भेड़चाल समझते हैं ! भेड़ झुण्ड में चलती है ! अपनी अकल नहीं लगाती ! शायद उसके पास यह होती नहीं ! और अगर होती तो वो उसे जरूर लगाती और फिर किसी के हांकने से भीड़ के साथ नहीं चलती ! अपने रास्ते खुद बनाती ! लेकिन यहां तो मानव जो की एक बुद्धिमान जानवर है मगर उसका भी सबसे होशियार बच्चा भेड़चाल का शिकार हैं !
सब जानते हैं की ये सब पैकेज का कमाल है ! आईआईटी के बाद आईआईएम् फिर कोई कॉर्पोरेट की नौकरी या फिर अमेरिका में किसी अच्छे विश्वविद्यालय में मास्टर और फिर अमेरिकन कम्पनी में मोटा पैकेज ! लेकिन मेरा सवाल यहाँ थोड़ा भिन्न है ! इतने होनहार बच्चे को पैकेज के लिए इसी घिसे पिटे रास्ते में चलने की क्या आवश्यकता है ! वो जिस किसी भी क्षेत्र में जाएगा सफल ही होगा और अगर वो उसके पसंद का क्षेत्र होगा तो उसमे उसकी सफलता के साथ उसे संतोष भी मिलेगा और ऐसा होने पर वो कुछ ज्यादा बेहतर कर पायेगा ! शायद कोई अप्रत्याशित सफलता हाथ लगे ! और फिर अगर एक शीर्ष का छात्र रिस्क नहीं ले पा रहा तो देश के सामान्य छात्र के मानसिक अवस्था का सहज अनुमान लगाया जा सकता है !
वैसे उपरोक्त घिसे पिटे रास्ते में भी एक पेंच है , जो अभिभावक और छात्र को शायद अभी दिखाई नहीं दे रहा ! कोई जरूरी नहीं की मुंबई आईआईटी के कंप्यूटर साइंस के सभी पचास बच्चे जीवन में शीर्ष पर ही पहुंचे ! और इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि आईआईटी मुंबई के ही कोई दूसरी ब्रांच वाला छात्र इन पचास से बेहतर ना करे ! तो फिर ऐसे में टॉप में आने के लिए माँ बाप ने उस बच्चे के साथ ११वी और १२ वी के दो साल में जितना मानसिक अत्याचार किया होगा , वो सब व्यर्थ ही हुआ ! और फिर एक उच्च संस्थान का हर बच्चा जीवन के धरातल पर भी सफल ही हो कोई जरूरी नहीं ! कई बड़े हास्यास्पद उदाहरण दिखाई देते हैं ! आईआईटी के किसी इंजीनियरिंग विभाग से पढ़ कर आईआईएम् से मार्केटिंग में मास्टर करके कोई चॉकलेट को बेचे, फिर चाहे वो अंतर्राष्ट्रीय कम्पनी ही क्यों ना हो , उस चॉकलेट बेचने में उसकी इंजीनियरिंग का क्या रोल ? दो साल की उन कठिन रातों का क्या ओचित्य जो उसने जागकर सिर्फ इसलिए बिताई थी की उसे आईआईटी में दाखिला मिल जाए ! उसकी यह तपस्या किस काम आ रही है समझ से परे है !ऐसे कई उदाहरण है और कई और भी बड़े दिकचस्प हैं ! ऐसे होनहार को जब किसी गारमेंट्स इंडस्ट्री में सेल्स के लिए अंडर गारमेंट्स के रंग का सैंपल कलेक्ट करते हुए सुनता हूँ तो मेरी क्या प्रतिक्रिया होती है उसे यहां शब्द देना संभव नहीं !
एक किस्सा बड़ा दिलचस्प याद आ रहा है ! एक मित्र जो स्वयं किसी साधारण स्कूल से पढ़ा था मगर उसने अपने व्यापार में अच्छी सफलता हासिल की थी ! एक बार जोश जोश में उसने एक आईआईटी का छात्र प्रोडक्शन के लिए और एक आईआईएम् का छात्र सेल्स के लिए रखे थे ! मगर साल से भी कम में परेशान हो कर उसमे मैनेजमेंट वाले को निकाल दिया था क्योंकि वो कोई विशेष नहीं कर पा रहा था और उसकी मोटी सैलरी कही से भी जस्टिफाई नहीं हो पा रही थी ! मगर जब मैंने आईआईटी वाले के बारे में पूछा तो पता चला की उसका सदुपयोग वो अपने बच्चो की एक्सट्रा पढ़ाई के लिए कर रहा है ! बातचीत में पता चला की वो आईआईटी का छात्र एक सफल प्रोफ़ेसर हो सकता है ! मगर उसे कौन समझाए , उसका दिमाग पहले से ही प्रोग्राम्ड है ! उसे तो भारत के समाज ने भेड़ बना दिया है जो पैकेज वाली नौकरी की कतार में लगा हुआ है ! जबकि ईश्वर ने उसे एक आदर्श गुरु होने के सभी गुण दे कर इस दुनिया में भेजा है !
सवाल उठता है की कॉर्पोरेट की नौकरी ही क्यों ? स्टार्ट अप क्यों नहीं ? और फिर कम्पुयटर साइंस ही क्यों , मानव साइंस क्यों नहीं , समुद्र साइंस क्यों नहीं , अंतरिक्ष साइंस क्यों नहीं , एग्रीकल्चर साइंस क्यों नहीं ,दूध का साइंस क्यों नहीं ! एक बुद्धिमान छात्र अगर डेयरी साइंस में पढ़ेगा तो वो फिर किसी चॉकलेट के कॉर्पोरेट में नौकरी नहीं ढूंढेगा बल्कि स्वयं किसी चॉकलेट फेक्ट्री का मालिक होगा ! उसके लिए उसे सिर्फ अपनी पसंद को उस समय ही जान लेना होगा जब वो आईआईटी में घुसने के लिए किसी गधे की तरह अपने ऊपर एक एक्स्ट्रा बोझ ढो रहा था !
Manoj singh

यूपीएससी और देश की नौकरशाही

बुरा है पर सच है।
यूपीएससी और देश की नौकरशाही एक तमाशा बन चुकी है।
इंडस्ट्री के विषय वस्तु पर एक्सपर्ट लोगों की जहां आवश्यकता है वहां साधारण ग्रेजुएट तीन चार साल रट्टा मार मार कर बिना किसी नौकरी या धंधे या विषय के अनुभव यानि एक्सपीरिएंस के, आईएएस बन रहे हैं, ऊपर से अब तो जिहादी भी भरने लगे हैं, ऐसे तो चल चुका देश।
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इस देश में नेताओं से भी बड़ी समस्या देश की परमानेंट नौकरशाही है। जहां देश में नेतृत्व हर पांच साल बाद बदल जाता है, वहीं ये नौकरशाह रिटायरमेंट तक वहीं जमे रहते हैं।
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ज्वाइंट सचिव पद पर सीधे बाहरवालों की एंट्री चालू करवा के मोदी ने सच में बरैया के छत्ते में हाथ मारा है।
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यूपीएससी का पूरा गोरखधंधा नेहरू के समय से ऐसा ही है जहां आर्ट्स वालों को विज्ञान वालों पर तरजीह दी जाती गई है ताकि समाजवाद और वामपंथ को बढ़ावा मिले।
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कोई भी सब्जेक्ट मैटर एक्सपर्ट यानि विषय विशेषज्ञ पहले उस सेक्टर की इंडस्ट्री में काम करता है तब सब्जेक्ट नॉलेज यानि विषय का ज्ञान पाता है।
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नीति निर्धारकों को सीधा एक से अधिक मौके दे कर पहले निर्धारक बनाते हैं और वह अपनी मनमर्ज़ी ही चलाते हैं जब तक ऊपर से जनता द्वारा चुनाव किए नेता का हंटर ना चले। आम आदमी भी सोचता है कई बार कि नियम ऐसे टेढ़े उल्टे सीधे क्यों हैं तो वो इसी नौकरशाही की देन होता है ताकि इनकी जेबें भर्ती रहें और देश इन्हीं नियमों में उलझा रहे। देश में भ्रष्टाचारी नेता तो बदलते रहते हैं मगर इन्हीं नौकरशाहों कि बदौलत घूसखोरी चालू रहती है।
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अगर देश बदलना है तो देश की नौकरशाही में विषय विशेषज्ञों को ही लाना होगा, उनकी डिग्री और क्षेत्र में उनके अनुभव के हिसाब से, ना कि कोरी किताबें पढ़ कर एक पूर्णतः समाजवादी विचारधारा से प्रेरित एक पेपर निकालने के बाद।
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आपके यूपीएससी के पेपर और सब्जेक्ट का सिलेबस कोई स्पेशलिस्ट सेट नहीं करते। एक बार करवा के देखिए और वैकेंसी की भरपाई विभागीय स्तर पर करवाइए देखते हैं कितने माई के लाल यूपीएससी क्लियर कर पाते हैं और मन मर्ज़ी का cadre और नियुक्ति पाते हैं।
मोदी ने अफसरशाही में सीधी भर्ती खोली उसपर लिखी पिछली पोस्ट जब पेज पर लिखी तब एक बंदा बोल गया, "एडमिन तूने कभी prelims क्लियर किया है जो सिविल सर्विसेज या यूपीएससी को बुरा कह रहा है?"
तो भईया फिर से वही बात दोहराता हूं, "prelims छोड़ो, mains क्लियर करने वाले कितने लोग टी एन सेशन या अशोक खेमका बन सामने आए हैं? सबने मिल कर कौनसा जितनी योजनाएं नेताओं ने घोषित, चाहे किसी भी पार्टी की हो, उतनी ही ज़मीन पर पूरी उतारी हों?"
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क्या विश्लेषण करने के लिए आप एक समानांतर मॉडल से मिलान नहीं कर सकते?
मैं दुनिया की एक अग्रणी टेक्नोलॉजी कंसल्टिंग कंपनी में एक टेक्नोलॉजी कंसल्टेंट हूं। पिछले पांच साल से इस इंडस्ट्री के कई छोटे बड़े पहलुओं को काफी करीब से देख सुना जाना और समझा है। मैं आज आराम से बता सकता हूं कि देश की टेक्निकल संस्था जैसे कि NIC इत्यादि में मोटी मोटी क्या समस्याएं हैं। क्या कारण है कि मैं ऐसा कर सकता हूं मगर इन संस्थाओं के अफसर ये काम नहीं कर पाते?
और मैं अकेला नहीं जो ये विश्लेषण कर सकता हूं मेरे जैसे हजारों लोग हैं इंडस्ट्री में।
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अफसरशाही में hiring प्रणाली यानि इम्तेहानों को ऐसा रखा गया है कि समाजवादी विचारधारा और उसपर लिख पाने वाले सिस्टम में अधिक से अधिक घुस सकें। इस बात से कोई संबंध नहीं कि जो अफसर बन रहा है वो क्या कभी उस विभाग में सच में काम करना चाहता था या उसके पास उस विभाग का या उससे संबंधित इंडस्ट्री का कोई पहले का दो बरस भर का अनुभव है भी या नहीं।
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समस्या यहीं शुरू होती है।
कुछ लोगों का झुंड किताबी ज्ञान के दम पर देश की जनता के लिए महत्त्वपूर्ण फैसले लेने के लिए सक्षम मान लिया जाता है। ये लोग प्लैनिंग कमीशन के दौर में, नेताओं से मिल जुल कर फैसले करते थे कि देश का कितना संसाधन (पढ़ें लूट) कैसे और किसके हिस्से में आएगा। तो असल में कोई भी इसका आसानी से लूट के लिए इस्तेमाल कर सकता था और हुआ भी यही।
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इन्हीं नेताओं और अफसरशाही ने 1991 तक देश का ऐसा दीवाला निकाला था कि देश का सोना विदेश में गिरवी रखना पड़ा था।
अभी भी जितने घोटाले होते हैं या हुए हैं उनके leakage अफसरशाही के माध्यम से ही होते हैं क्योंकि सरकार की सभी योजनाओं को प्रशासन ही ज़मीन पर उतारता है।
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आपको काम करना था या लूट? किस लिए सिस्टम इतना लचीला है आज भी कि इतने कम अफसर फंसते हैं घोटालों में? ज़्यादा से ज़्यादा सस्पेंड भी हुए तो भी आधी तनख्वाह और भ्रष्टाचार की मलाई से सबके घर पलते रहते हैं।
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जब तक मोदी ने प्लैनिंग कमीशन को खत्म करके नीति आयोग का गठन नहीं किया, संसाधन नीलामी प्रक्रिया पारदर्शी नहीं की, बैंकों को मजबूत नहीं किया, सरकारी खरीद को कड़े नियमों से नहीं बांधा, और आधार से खाते लिंक करवा के लाखों करोड़ की leakage नहीं रोकी, तब तक देश हर रोज़ ऐसे ही लूटा जा रहा था। फिर भी आज की तारीख में केंद्र एवं राज्य की ऐसी घटिया अफसरशाही के होने के कारण उनकी बनाई बुरी नीतियों के चलते आज भी, कुछ सेक्टरों में Make In India, या सरकारी कंपनियों जैसे Air India के विनिवेश जैसी कुछ बेहतरीन योजनाएं बुरी तरह से विफल होती जा रही हैं।
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आपको जब मुस्लिमों जैसे अच्छे मुसलमान भी होते हैं types अच्छे अफसरशाह भी होते हैं जैसे कुछ एक example देने पड़ जाएं तो फिर आपको खुद समझ जाना चाहिए कि आपका सिस्टम कोई awesome और fool proof तो है नहीं कि सभी अफसरशाह ईमानदार निकल रहे हों या भ्रष्टाचार बिल्कुल भी ना हो रहा हो।
और इसके विश्लेषण के लिए किसी को prelims क्लियर करने की जरूरत नहीं होती।
- Vishwajeet Sinha

अधूरे हैं..

सिर्फ़ सोचे हैं करके नहीं देखे
मेरे सारे गुनाह, अधूरे हैं..!

Friday 26 January 2018

लुत्फ़-ए-सफ़र

लुत्फ़-ए-सफ़र में हम कुछ ऐसे बहल गए
मंजिल पे पंहुचा, देखा और आगे निकल गए
[ लुत्फ़-ए-सफ़र = pleasure of travelling]
गुज़रे जब कूचा-ए-जाना से हम आज
बरसों के दबे तमन्ना, दिल में मचल गए
[कूचा-ए-जाना = lane of beloved ]

'मुज़्तरिब'

वो यही कुछ सोचकर

वो यही कुछ सोचकर बाज़ार में ख़ुद आ गया,
क़द्र हीरे की है कब बाज़ार से रहकर अलग ।
काम करने वाले अपने नाम की भी फ़िक्र कर,
सुर्ख़ियाँ बेकार हैं अख़बार से रहकर अलग ।
सिर्फ़ वे ही लोग पिछड़े ज़िन्दगी की दौड़ में,
वो जो दौड़े वक़्त की रफ़्तार से रहकर अलग ।
हो रुकावट सामने तो और ऊँचा उठ ‘कुँअर’
सीढ़ियाँ बनतीं नहीं दीवार से रहकर अलग ।
– कुँअर बेचैन

ज़ख़्म क्यों गहरे हुए

हम कहाँ रुस्वा हुए रुसवाइयों को क्या ख़बर,
डूबकर उबरे न क्यूँ गहराइयों को क्या ख़बर ।
ज़ख़्म क्यों गहरे हुए होते रहे होते गए,
जिस्म से बिछुड़ी हुई परछाइयों को क्या ख़बर ।
क्यों तड़पती ही रहीं दिल में हमारे बिजलियाँ,
क्यों ये दिल बादल बना अंगड़ाइयों को क्या ख़बर ।
कौन सी पागल धुनें पागल बनातीं हैं हमें,
होंठ से लिपटी हुई शहनाइयों को क्या ख़बर ।
किस क़दर तन्हा हुए हम शहर की इस भीड़ में,
यह भटकती भीड़ की तन्हाइयों को क्या ख़बर ।
– कुँअर बेचैन

हमसे तो यूँ ही

अजीब शख्स था कैसा मिजाज़ रखता था
साथ रह कर भी इख्तिलाफ रखता था
मैं क्यों न दाद दूँ उसके फन की
मेरे हर सवाल का पहले से जवाब रखता था
वो तो रौशनियों का बसी था मगर
मेरी अँधेरी नगरी का बड़ा ख्याल रखता था
मोहब्बत तो थी उसे किसी और से शायद
हमसे तो यूँ ही हसी मज़ाक रखता था

खाली खाली न यूँ दिल का मकां रह जाये

खाली खाली न यूँ दिल का मकां रह जाये
तुम गम-ए-यार से कह दो, कि यहां रह जाये
इस लिये ज़ख्मों को मरहम से नहीं मिलवाया
कुछ ना कुछ आपकी कुरबत का निशां रह जाये

Monday 5 December 2016

क़तील शिफ़ाई ( Qateel Shifai)




बेचैन बहारों में क्या-क्या है जान की ख़ुश्बू आती है



बेचैन बहारों में क्या-क्या है जान की ख़ुश्बू आती है
जो फूल महकता है उससे तूफ़ान की ख़ुश्बू आती है

कल रात दिखा के ख़्वाब-ए-तरब जो सेज को सूना छोड़ गया
हर सिलवट से फिर आज उसी मेहमान की ख़ुश्बू आती है

तल्कीन-ए-इबादत की है मुझे यूँ तेरी मुक़द्दस आँखों ने
मंदिर के दरीचों से जैसे लोबान की ख़ुश्बू आती है

कुछ और भी साँसें लेने पर मजबूर-सा मैं हो जाता हूँ
जब इतने बड़े जंगल में किसी इंसान की ख़ुश्बू आती है

कुछ तू ही मुझे अब समझा दे ऐ कुफ़्र दुहाई है तेरी
क्यूँ शेख़ के दामन से मुझको इमान की ख़ुश्बू आती है

डरता हूँ कहीं इस आलम में जीने से न मुनकिर हो जाऊँ
अहबाब की बातों से मुझको एहसान की ख़ुश्बू आती है

जब भी चाहें एक नई सूरत बना लेते हैं लोग


जब भी चाहें एक नई सूरत बना लेते हैं लोग
एक चेहरे पर कई चेहरे सजा लेते हैं लोग

मिल भी लेते हैं गले से अपने मतलब के लिए
आ पड़े मुश्किल तो नज़रें भी चुरा लेते हैं लोग

है बजा उनकी शिकायत लेकिन इसका क्या इलाज
बिजलियाँ खुद अपने गुलशन पर गिरा लेते हैं लोग

हो खुशी भी उनको हासिल ये ज़रूरी तो नहीं
गम छुपाने के लिए भी मुस्कुरा लेते हैं लोग

ये भी देखा है कि जब आ जाये गैरत का मुकाम
अपनी सूली अपने काँधे पर उठा लेते हैं लोग

आओ कोई तफरीह का सामान किया जाए


आओ कोई तफरीह का सामान किया जाए
फिर से किसी वाईज़ को परेशान किया जाए

बे-लर्जिश-ए-पा मस्त हो उन आँखो से पी कर
यूँ मोह-त-सीबे शहर को हैरान किया जाए

हर शह से मुक्क्दस है खयालात का रिश्ता
क्यूँ मस्लिहतो पर इसे कुर्बान किया जाए

मुफलिस के बदन को भी है चादर की ज़रूरत
अब खुल के मज़रो पर ये ऐलान किया जाए

वो शक्स जो दीवानो की इज़्ज़त नहीं करता
उस शक्स का चाख-गरेबान किया जाए

पहले भी 'कतील' आँखो ने खाए कई धोखे
अब और न बीनाई का नुकसान किया जाए

प्यास वो दिल की बुझाने कभी आया भी नहीं


प्यास वो दिल की बुझाने कभी आया भी नहीं
कैसा बादल है जिसका कोई साया भी नहीं

बेस्र्ख़ी इस से बड़ी और भला क्या होगी
एक मु त से हमें उस ने सताया भी नहीं

रोज़ आता है दर-ए-दिल पे वो दस्तक देने
आज तक हमने जिसे पास बुलाया भी नहीं

सुन लिया कैसे ख़ुदा जाने ज़माने भर ने
वो फ़साना जो कभी हमने सुनाया भी नहीं

तुम तो शायर हो ‘क़तील’ और वो इक आम सा शख्स़
उस ने चाहा भी तुझे और जताया भी नहीं

सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं


सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं
लेकिन ये सोचता हूँ कि अब तेरा क्या हूँ मैं

बिखरा पडा है तेरे ही घर में तेरा वजूद
बेकार महफिलों में तुझे ढूंढता हूँ मैं

खुदकशी के जुर्म का करता हूँ ऐतराफ़
अपने बदन की कब्र में कबसे गड़ा हूँ मैं

किस-किसका नाम लू ज़बान पर की तेरे साथ
हर रोज़ एक शख्स नया देखता हूँ मैं

ना जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम
दुनिया समझ रही है के सब कुछ तेरा हूँ मैं

ले मेरे तजुर्बों से सबक ऐ मेरे रकीब
दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं

जागा हुआ ज़मीर वो आईना है 'क़तील'
सोने से पहले रोज़ जिसे देखता हूँ मैं

अंगड़ाई पर अंगड़ाई लेती है रात जुदाई की


अंगड़ाई पर अंगड़ाई लेती है रात जुदाई की
तुम क्या समझो, तुम क्या जानो बात मेरी तनहाई की

कौन सियाही घोल रहा था वक़्त के बहते दरिया में
मैंने आँख झुकी देखी है आज किसी हरजाई की

वस्ल की रात न जाने क्यूँ इसरार था उनको जाने पर
वक़्त से पहले डूब गए तारों ने बड़ी दानाई की

उड़ते उड़ते आस का पंछी दूर उफक में डूब गया
रोते रोते बैठ गई आवाज़ किसी सौदाई की

अपने होठों पर सजाना चाहता हूँ


अपने होठों पर सजाना चाहता हूँ,
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ।

कोई आंसू तेरे दामन पर गिराकर,
बूँद को मोती बनाना चाहता हूँ।

थक गया में करते-करते याद तुझको,
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ।

छा रहा है सारी बस्ती में अँधेरा,
रौशनी दो घर जलाना चाहता हूँ।

आखिरी हिचकी तेरे जानों पा आये,
मौत भी में शायराना चाहता हूँ।

यूँ चुप रहना ठीक नहीं कोई मीठी बात करो
यूँ चुप रहना ठीक नहीं कोई मीठी बात करो
मोर चकोर पपीहा कोयल सब को मात करो

सावन तो मन बगिया से बिन बरसे बीत गया
रास में दुबे नगमे की अब तुम बरसात करो

हिज्र की एक लम्बी मंजिल को जानेवाला हूँ
अपनी यादों के कुछ साये मेरे साथ करो

मैं किरणों की कलियाँ चुनकर सेज बना लूँगा
तुम मुखरे का चाँद जलाओ रौशन रात करो

प्यार बुरी शय नहीं है लेकिन फिर भी यार "क़तील"
गली-गली तकसीम ना तुम अपने जज़्बात करो

ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं
मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा

तू मिला है तो ये एहसास हुआ है मुझको
ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिए थोरी है
इक ज़रा सा गम-इ-दौरान का भी हक है जिस पर
मैं ने वो साँस भी तेरे लिए रख छोरी है
तुझ पे हो जाऊंगा कुर्बान तुझे चाहूँगा

अपने जज्बात में नागमत रचाने के लिए
मैं ने धरकन की तरह दिल में बसाया है तुझे
मैं तसव्वुर भी जुदाई का भला कैसे करूँ
मैं ने किस्मत की लकीरों से चुराया है तुझे
प्यार का बन क निगेहबान तुझे चाहूँगा

तेरी हर चाप से जलते हैं ख्यालों में चिराग
जब भी तू आये जगाता हुआ जादू आये
तुझको छू लूँ तो फिर ऐ जन-इ-तमन्ना मुझको
देर तक अपने बदन से तेरी खुशबु आये
तू बहरों का है उन्वान तुझे चाहूँगा

पहले तो अपने दिल की राजा जान जाइये


पहले तो अपने दिल की राजा जान जाइये
फिर जो निगाह-इ-यार कहे मान जाइये

पहले मिज़ाज-इ-रहगुज़र जान जाइये
फिर गर्द-इ-रह जो भी कहे मान जाइये

कुछ कह रही है आप क सिने की धरकने
मेरी सुनें तो दिल का कहा मान जाइये

इक धुप सी जमी है निगाहों क आस पास
ये आप हैं तो आप पे कुर्बान जाइये

शायद हुजुर से कोई निस्बत हमें भी हो
आँखों में झांक कर हमें पहचान जाइये

अपने हाथों की लकीरों में बसाले मुझको


अपने हाथों की लकीरों में बसाले मुझको
मैं हूँ तेरा, तू नसीब अपना बनाले मुझको

मैं जो कांटा हूँ तो चल मुझसे बचाकर दामन
मैं हूँ गर फूल तो जूडे में सजाले मुझको

मैं खुले दर के किसी घर का सामान हूँ प्यारा
तू दबे पाँव कभी आके चुराले मुझको

तर्क-ए-उल्फत की कसम भी कोई होती है कसम
तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझको

मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के माने
ये तेरी सादा दिली मार न डाले मुझको

कल की बात और है मैं अब सा रहूँ या न रहूँ
जितना जी चाहे तेरा आज सताले मुझको

मैं खुद को बाँट न डालूँ कहीं दामन दामन
कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको

कोई भी नाम मिरा लेके बुलाले मुझको


मैं समन्दर भी हूँ, मोती भी हूँ, ग़ोता-ज़न भी
कोई भी नाम मिरा लेके बुलाले मुझको

तूने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी
ख़ुदपरस्ती में कहीं तू न गँवा ले मुझको

कल की बात और है, मैं अब सा रहूँ या न रहूँ
जितना भी चाहे तिरा, आज सताले मुझको

खु़द को मैं बाँट न डालूं कहीं दामन-दामन
कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको

बादह फिर बादह है मैं ज़हर भी पी जाऊं क़तील
शर्त यह है, कोई बाहों में संभाले मुझको

तुझको दरया दिली की कसम साकिया


तुझको दरया दिली की कसम साकिया,
मुस्तकिल दौर पर दौर चलता रहा
रौनक-इ-मैकदा यूं ही बढती रहे
एक गिरता रहे इक संभालता रहे

शिर्फ़ सब्नम ही शान-इ-गुलिस्ता नहीं
शोला-ओ-गुल का भी दौर चलता रहे
अश्क भी चास्म-इ-पुरनम से बहते रहे
और दिल से धूं भी निकलता रहे

तेरे कब्ज़े में है ये मिजामी जहां
तू जो चाहे तो सेहरा बने गुलसितां
हर नज़र पर तेरी फूल खिलते रहे
हर इशारे पे मौसम बदलता रहे

तेरे चेहरे पे ये ज़ुल्फ़ बिखरी हुयी
नींद की गोध में सुबह निखरी हुयी
और इस पर सितम ये अदाएं तेरी
दिल है आखिर कहाँ तक संभालता रहे

इस में खून-इ-तमन्ना की तासीर है
ये वफ़ा-इ-मोहब्बत की तस्वीर है
ऐसी तस्वीर बदले ये मुमकीन नहीं
रंग चाहे ज़माना बदलता रहे

वो दिल ही क्या तेरे मिलने की जो दुआ न करे


वो दिल ही क्या तेरे मिलने की जो दुआ न करे
मैं तुझको भूल के जिंदा रहूँ खुदा न करे

रहेगा साथ तेरा प्यार ज़िन्दगी बनकर
ये और बात मेरी ज़िन्दगी वफ़ा न करे

सुना है उसको मोहब्बत दुआएं देती है
जो दिल पे चोट तो खाए मगर गिला न करे

ये ठीक है नहीं मरता कोई जुदाई में
खुदा किसी को किसी से मगर जुदा न करे

किया है प्यार जिसे हमने ज़िन्दगी की तरह
किया है प्यार जिसे हमने ज़िन्दगी की तरह
वो आशना भी मिला हमसे अजनबी की तरह

किसे खबर थी बढ़ेगी कुछ और तारीकी
छुपेगा वो किसी बदली में चांदनी की तरह

बाधा के प्यास मेरी उसने हाथ छोड़ दिया
वो कर रहा था मुरव्वत भी दिल्लगी की तरह
  
सितम तो ये है के वो भी न बन सका अपना
कबूल हमने किये जिसके गम ख़ुशी की तरह

कभी न सोचा था हमने 'क़तील' उसके लिए
करेगा हम पे सितम वो भी हर किसी की तरह

नामाबर अपना हवाओं को बनाने वाले

नामाबर अपना हवाओं को बनाने वाले
अब न आयेंगे कभी लौट के जाने वाले

क्या मिलेगा युझे बिखरे हुये ख़्वाबों के सिवा
रेत पर चाँद की तस्वीर बनाने वाले

मयक़दे बन्द हुये ढूंढ रहा हूँ तुझको
तू कहाँ है मुझे आँखों से पिलाने वाले

काश ले जाते कभी माँग के आँखें मेरी
ये मुसव्विर तेरी तस्वीर बनाने वाले

तू इस अन्दाज़ में कुछ और हँसीं लगता है
मुझसे मुँह फेर के गज़लें मेरी गाने वाले

सबने पहना था बड़े शौक़ से कागज़ का लिबास
किस कदर लोग थे बारिश में नहाने वाले

अद्ल की तुम न हमें आस दिलाओ कि यहाँ
क़त्ल हो जाते हैं जंज़ीर हिलाने वाले

किसको होगी यहाँ तौकीफ़े –अना मेरे बाद
कुछ तो सोचें मुझे सूली पे चढाने वाले

मर गये हम तो यह क़त्बे पे लिखा जायेगा
सो गये आप ज़माने को जगाने वाले

दरो दीवार पे हसरत सी बरसती है क़तील
जाने  किस देस गये प्यार निभाने वाले



अपने हाथों की लकीरों में बसाले मुझको
अपने हाथों की लकीरों में बसाले मुझको
मैं हूं तेरा नसीब अपना बना ले मुझको
मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के मानी
ये तेरी सदादिली मार न डाले मुझको
मैं समंदर भी हूं मोती भी हूं गोतज़ान भी
कोई भी नाम मेरा लेके बुलाले मुझको
तूने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी
ख़ुदपरस्ती में कहीं तू न गवां ले मुझको
कल की बात और है मैं अब सा रहूं या न रहूं
जितना जी चाहे तेरा आज सताले मुझको

ख़ुद को मैं बांट न डालूं कहीं दामन-दामन
कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको
मैं जो कांटा हूं तो चल मुझसे बचाकर दामन
मैं हूं अगर फूल तो जूड़े में सजाले मुझको
मैं खुले दर के किसी घर का हूं सामां प्यार
तू दबे पांव कभी आके चुराले मुझको
तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम
तू कभी याद तो कर भूलाने वालो मुझको
बादा फिर बादा है मैं ज़हर भी पी जाऊं
शर्त ये है कोई बाहों में सम्भाले मुझको
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अपने होठों पे सजाना चाहता हूं
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूं
कोई आंसू तेरे दामन पर गिराकर
बूंद को मोती बनाना चाहता हूं
थक गया मैं करते-करते याद तुझको
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूं
छा रहा है सारी बस्ती में अंधेरा
रौशनी हो घर जलाना चाहता हूं
आख़री हिचकी तेरे ज़ानों पे आए
मौत भी मैं शायराना चाहता हूं
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इक-इक पत्थर जोड़ के मैंने जो दीवार बनाई है
झांखू उस के पीछे तो स्र्स्वाई ही स्र्स्वाई है
यों लगता है सोते जागते औरों का मोहताज हूं
आंखें मेरी अपनी हैं पर उन में नींद पराई है
देख रहे हैं सब हैरत से नीले-नीले पानी को
पूछे कौन समंदर से तुझ में कितनी गहराई है
आज हुआ मालूम मुझे इस शहर के चंद सयानों से
अपनी राह बदलते रहना सबसे बड़ी दानाई है
तोड़ गए पैमान-ए-वफ़ा इस दौर में कैसे कैसे लोग
ये मत सोच ‘क़तील’ कि बस इक यार तेरा हरजाई है
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किया है प्यार जिसे हमने ज़िन्दगी की तरह
वो आशना भी मिला हमसे अजनबी की तरह
बढ़ा के प्यास मेरी उस ने हाथ छोड़ दिया
वो कर रहा था मुरव्वत भी दिल्लगी की तरह
किसे ख़बर थी बढ़ेगी कुछ और तारीकी
छुपेगा वो किसी बदली में चांदनी की तरह
कभी न सोचा था हमने ‘क़तील’ उस के लिए
करेगा हम पे सितम वो भी हर किसी की तरह
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मिलकर जुदा हुए तो न सोया करेंगे हम
एक दूसरे की याद में रोया करेंगे हम
आंसू छलक छलक के सताएंगे रात भर
मोती पलक पलक में पिरोया करेंगे हम
जब दूरियों की आग दिलों को जलाएगी
जिस्मों को चांदनी में भिगोया करेंगे हम
गर दे गया दगा़ हमें तूफ़ान भी ‘क़तील’
साहिल पे कश्तियों को डूबोया करेंगे हम
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परेशां रात सारी है सितारों तुम तो सो जाओ
सुकूत-ए-मर्ग तारी है सितारों तुम तो सो जाओ
हंसों और हंसते-हंसते डूबते जाओ ख़लाआें में
हमें ये रात भारी है सितारों तुम तो सो जाओ
तुम्हें क्या आज भी कोई अगर मिलने नहीं आया
ये बाज़ी हम ने हारी है सितारों तुम तो सो जाओ
कहे जाते हो रो-रोके हमारा हाल दुनिया से
ये कैसी राज़दारी है सितारों तुम तो सो जाओ
हमें तो आज की शब पौ फटे तक जागना होगा
यही क़िस्मत हमारी है सितारों तुम तो सो जाओ
हमें भी नींद आ जाएगी हम भी सो ही जाएंगे
अभी कुछ बेक़रारी है सितारों तुम तो सो जाआ
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प्यास वो दिल की बुझाने कभी आया भी नहीं
कैसा बादल है जिसका कोई साया भी नहीं
बेस्र्ख़ी इस से बड़ी और भला क्या होगी
एक मु त से हमें उस ने सताया भी नहीं
रोज़ आता है दर-ए-दिल पे वो दस्तक देने
आज तक हमने जिसे पास बुलाया भी नहीं
सुन लिया कैसे ख़ुदा जाने ज़माने भर ने
वो फ़साना जो कभी हमने सुनाया भी नहीं
तुम तो शायर हो ‘क़तील’ और वो इक आम सा शख्स़
उस ने चाहा भी तुझे और जताया भी नहीं
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सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूं मैं
लेकिन ये सोचता हूं कि अब तेरा क्या हूं मैं
बिखरा पड़ा है तेरे ही घर में तेरा वजूद
बेकार महिफ़लों में तुझे ढूंढता हूं मैं
मैं ख़ुदकशी के जुर्म का करता हूं ऐतराफ़
अपने बदन की क़ब्र में कबसे गड़ा हूं मैं
किस-किसका नाम लूं ज़बां पर कि तेरे साथ
हर रोज़ एक शख्स़ नया देखता हूं मैं
ना जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम
दुनिया समझ रही है के सब कुछ तेरा हूं मैं
ले मेरे तजुर्बों से सबक ऐ मेरे रक़ीब
दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूं मैं
जागा हुआ ज़मीर वो आईना है ‘क़तील’
सोने से पहले रोज़ जिसे देखता हूं मैं
———————————————————–
तुम पूछो और मैं न बताऊं ऐसे तो हालात नहीं
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं
किस को ख़बर थी सांवले बादल बिन बरसे उड़ जाते हैं
सावन आया लेकिन अपनी क़िस्मत में बरसात नहीं
माना जीवन में औरत एक बार मोहब्बत करती है
लेकिन मुझको ये तो बता दे क्या तू औरत ज़ात नहीं
ख़त्म हुआ मेरा अफ़साना अब ये आंसू पोंछ भी लो
जिस में कोई तारा चमके आज की रात वो रात नहीं
मेरे गम़गीं होने पर अहबाब हैं यों हैरान ‘क़तील’
जैसे मैं पत्थर हूं मेरे सीने में जज्ब्ा़ात नहीं
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तूने ये फूल जो ज़ुल्फ़ों में लगा रखा है
इक दिया है जो अन्धेरों में जला रखा है
जीत ले जाए कोई मुझको नसीबों वाला
ज़िन्दगी ने मुझे दाओ पे लगा रखा है
जाने कब आए कोई दिल में झांकने वाला
इस लिए मैं ने गिऱेबां को खुला रखा है
इम्तेहां और मेरी ज़ब्त का तुम क्या लोगे
मैंने धड़कन को भी सीने में छुपा रखा है
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तुम्हारी अन्जुमन से उठ के दीवाने कहां जाते
जो वाबस्ता हुए तुमसे वो अफ़साने कहां जाते
निकल कर दैर-ओ-काबा से अगर मिलता न मैख़ाना
तो ठुकराए हुए इन्सान ख़ुदा जाने कहां जाते
तुम्हारी बेस्र्ख़ी ने लाज रख ली बादाख़ाने की
तुम आंखों से पिला देते तो पैमाने कहां जाते
चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी
वगर्ना हम ज़माने भर को समझाने कहां जाते
‘क़तील’ अपना मुक़ र गम़ से बेगाना अगर होता
फिर तो अपने-पराए हमसे पहचाने कहां जाते
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वो दिल ही क्या तेरे मिलने की जो दुआ न करे
मैं तुझ को भूल के ज़िन्दा रहूं ख़ुदा न करे
रहेगा साथ तेरा प्यार ज़िन्दगी बनकर
ये और बात मेरी ज़िन्दगी वफ़ा न करे
ये ठीक है नहीं मरता कोई जुदाई में
ख़ुदा किसी से किसी को मगर जुदा न करे
सुना है उसको मोहब्बत दुआएं देती है
जो दिल पे चोट तो खाए मगर गिला न करे
ज़माना देख चुका है परख चुका है उसे
‘क़तील’ जान से जाए पर इल्तजा न करे
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ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं
मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा
तू मिला है तो ये एहसास हुआ है मुझको
ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिए थोड़ी है
इक ज़रा सा गम़-ए-दौरां का भी हक़ है जिस पर
मैं नेा वो सांस भी तेरे लिए रख छोड़ी है
तुझ पे हो जाऊंगा क़ुरबान तुझे चाहूंगा
अपने जज़्बात में नग्म्ा़ात रचाने के लिए
मैं ने धड़कन की तरह दिल में बसाया है तुझे
मैं तसव्वुर भी जुदाई का भला कैसे करूं
मैं ने क़िस्मत की लकीरों से चुराया है तुझे
प्यार का बन के निगेहबान तुझे चाहूंगा
तेरी हर चाप से जलते है ख़यालों में चिराग
जब भी तू आए जगाता हुआ जादू आए
तुझको छू लूं तो फिर ऐ जान-ए-तमन्ना मुझको
देर तक अपने बदन से तेरी ख़ुश्बू आए
तू बहारों का है उनवान तुझे चाहूंगा
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गुज़रे दिनों की याद बरसती घटा लगे
गुज़रूं जो उस गली से तो ठंडी हवा लगे
मेहमान बनके आए किसी रोज़ अगर वो शख्स़
उस रोज़ बिन सजाए मेरा घर सजा लगे
मैं इस लिये मनाता नहीं वस्ल की ख़ुशी
मेरे रक़ीब की न मुझे बद्दुआ लगे
वस्ल=मिलन; रक़ीब=प्रतिद्वन्दी
वो क़हत दोस्ती का पड़ा है कि इन दिनों
जो मुस्कुरा के बात करे आश्ना लगे
क़हत=अकाल,कमी; आश्ना=मित्र,परिचित
तर्क-ए-वफ़ा के बाद ये उस की अदा ‘क़तील’
मुझको सताए कोई तो उस का बुरा लगे
तर्क-ए-वफ़ा=प्रेम का त्याग
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मैंने पूछा पहला पत्थर मुझ पर कौन उठाएगा
आई इक आवाज़ कि तू जिस का मोहसिन कहलाएगा
मोहसिन= भला करने वाला
पूछ सके तो पूछे कोई रूठ के जाने वालों से
रोशनियों को मेरे घर का रस्ता कौन बताएगा
लोगो मेरे साथ चलो तुम जो कुछ है वो आगे है
पीछे मुड़ कर देखने वाला पत्थर का हो जाएगा
दिन में हंसकर मिलने वाले चेहरे साफ़ बताते हैं
एक भयानक सपना मुझ को सारी रात डराएगा
मेरे बाद वफ़ा का धोका और किसी से मत करना
गाली देगी दुनिया तुझ को सर मेरा झुक जाएगा
सूख गई जब इन आंखों में प्यार की नीली झील ‘क़तील’
तेरे दर्द का ज़र्द समन्दर काहो शोर मचाएगा
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दुनिया ने हम पे जब कोई इल्ज़ाम रख दिया
हम ने मुक़ाबिल उस के तेरा नाम रख दिया
इल्ज़ाम= आरोप; मुक़ाबिल= सामने, समक्ष
इक ख़ास ह पे आ गई जब तेरी बेस्र्ख़ी
नाम उस का हम ने गर्दिश-ए-अय्याम रख दिया
ह = सीमा; गर्दिश-ए-अय्याम= कालचक्र
मैं लड़खड़ा रहा हूं तुझे देख-देख कर
तूने तो मेरे सामने इक जाम रख दिया
कितना सितम_ज़रीफ़ है वो साहिब-ए-जमाल
उस ने दीया जला के लब-ए-बाम रख दिया
सितम_ज़रीफ़= मुस्कुरा के अत्याचार करने वाला
साहिब-ए-जमाल= सुन्दर(सुन्दरता का अधिकारी)
लब-ए-बाम= देहरी का कोना
इन्सान और देखे बगै़र उस को मान ले
इक ख़ौफ़ का बशर ने ख़ुदा नाम रख दिया
ख़ौफ़= डर, भय; बशर= मानव
अब जिस के जी में आए वही पाए रौशनी
हम ने तो दिल जला के सर-ए-आम रख दिया
सर-ए-आम= जनता के सामने
क्या मसलहत_शनास था वो आदमी ‘क़तील’
मजबूरियों का जिस ने वफ़ा नाम रख दिया
मसलहत_शनास= चतुर

Wednesday 30 November 2016

परछाइयाँ ( साहिर लुधियानवी )

परछाइयाँ
          जवान रात के सीने पे दूधिया आँचल
          मचल रहा है किसी ख्वाबे-मरमरीं की तरह
          हसीन फूल, हसीं पत्तियाँ, हसीं शाखें
          लचक रही हैं किसी जिस्मे-नाज़नीं की तरह
          फ़िज़ा में घुल से गए हैं उफ़क के नर्म खुतूत
          ज़मीं हसीन है, ख्वाबों की सरज़मीं की तरह

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरतीं हैं
कभी गुमान की सूरत कभी यकीं की तरह
वे पेड़ जिन के तले हम पनाह लेते थे
खड़े हैं आज भी साकित किसी अमीं की तरह

          इन्हीं के साए में फिर आज दो धड़कते दिल
          खामोश होठों से कुछ कहने-सुनने आए हैं
          न जाने कितनी कशाकश से कितनी काविश से
          ये सोते-जागते लमहे चुराके लाए हैं

यही फ़िज़ा थी, यही रुत, यही ज़माना था
यहीं से हमने मुहब्बत की इब्तिदा की थी
धड़कते दिल से लरज़ती हुई निगाहों से
हुजूरे-ग़ैब में नन्हीं सी इल्तिजा की थी
कि आरज़ू के कंवल खिल के फूल हो जायें
दिलो-नज़र की दुआयें कबूल हो जायें

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

तुम आ रही हो ज़माने की आँख से बचकर
नज़र झुकाये हुए और बदन चुराए हुए
खुद अपने कदमों की आहट से, झेंपती, डरती,
खुद अपने साये की जुंबिश से खौफ खाए हुए

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

रवाँ है छोटी-सी कश्ती हवाओं के रुख पर
नदी के साज़ पे मल्लाह गीत गाता है
तुम्हारा जिस्म हर इक लहर के झकोले से
मेरी खुली हुई बाहों में झूल जाता है

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

मैं फूल टाँक रहा हूँ तुम्हारे जूड़े में
तुम्हारी आँख मुसर्रत से झुकती जाती है
न जाने आज मैं क्या बात कहने वाला हूँ
ज़बान खुश्क है आवाज़ रुकती जाती है

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

मेरे गले में तुम्हारी गुदाज़ बाहें हैं
तुम्हारे होठों पे मेरे लबों के साये हैं
मुझे यकीं है कि हम अब कभी न बिछड़ेंगे
तुम्हें गुमान है कि हम मिलके भी पराये हैं।

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

मेरे पलंग पे बिखरी हुई किताबों को,
अदाए-अज्ज़ो-करम से उठ रही हो तुम
सुहाग-रात जो ढोलक पे गाये जाते हैं,
दबे सुरों में वही गीत गा रही हो तुम

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

वे लमहे कितने दिलकश थे वे घड़ियाँ कितनी प्यारी थीं,
वे सहरे कितने नाज़ुक थे वे लड़ियाँ कितनी प्यारी थीं

बस्ती को हर-एक शादाब गली, रुवाबों का जज़ीरा थी गोया
हर मौजे-नफ़स, हर मौजे सबा, नग़्मों का ज़खीरा थी गोया

नागाह लहकते खेतों से टापों की सदायें आने लगीं
बारूद की बोझल बू लेकर पच्छम से हवायें आने लगीं

तामीर के रोशन चेहरे पर तखरीब का बादल फैल गया
हर गाँव में वहशत नाच उठी, हर शहर में जंगल फैल गया

मग़रिब के मुहज़्ज़ब मुल्कों से कुछ खाकी वर्दी-पोश आये
इठलाते हुए मग़रूर आये, लहराते हुए मदहोश आये

खामोश ज़मीं के सीने में, खैमों की तनाबें गड़ने लगीं
मक्खन-सी मुलायम राहों पर बूटों की खराशें पड़ने लगीं

फौजों के भयानक बैंड तले चर्खों की सदायें डूब गईं
जीपों की सुलगती धूल तले फूलों की क़बायें डूब गईं

इनसान की कीमत गिरने लगी, अजनास के भाओ चढ़ने लगे
चौपाल की रौनक घटने लगी, भरती के दफ़ातर बढ़ने लगे

बस्ती के सजीले शोख जवाँ, बन-बन के सिपाही जाने लगे
जिस राह से कम ही लौट सके उस राह पे राही जाने लगे

इन जाने वाले दस्तों में ग़ैरत भी गई, बरनाई भी
माओं के जवां बेटे भी गये बहनों के चहेते भाई भी

बस्ती पे उदासी छाने लगी, मेलों की बहारें ख़त्म हुई
आमों की लचकती शाखों से झूलों की कतारें ख़त्म हुई

धूल उड़ने लगी बाज़ारों में, भूख उगने लगी खलियानों में
हर चीज़ दुकानों से उठकर, रूपोश हुई तहखानों में

बदहाल घरों की बदहाली, बढ़ते-बढ़ते जंजाल बनी
महँगाई बढ़कर काल बनी, सारी बस्ती कंगाल बनी

चरवाहियाँ रस्ता भूल गईं, पनहारियाँ पनघट छोड़ गईं
कितनी ही कंवारी अबलायें, माँ-बाप की चौखट छोड़ गईं

इफ़लास-ज़दा दहकानों के हल-बैल बिके, खलियान बिके
जीने की तमन्ना के हाथों, जीने ही के सब सामान बिके
कुछ भी न रहा जब बिकने को जिस्मों की तिजारत होने लगी
ख़लवत में भी जो ममनूअ थी वह जलवत में जसारत होने लगी

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

तुम आ रही हो सरे-आम बाल बिखराये हुये
हज़ार गोना मलामत का बार उठाये हुए
हवस-परस्त निगाहों की चीरा-दस्ती से
बदन की झेंपती उरियानियाँ छिपाए हुए

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

मैं शहर जाके हर इक दर में झाँक आया हूँ
किसी जगह मेरी मेहनत का मोल मिल न सका
सितमगरों के सियासी क़मारखाने में
अलम-नसीब फ़िरासत का मोल मिल न सका

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

तुम्हारे घर में क़यामत का शोर बर्पा है
महाज़े-जंग से हरकारा तार लाया है
कि जिसका ज़िक्र तुम्हें ज़िन्दगी से प्यारा था
वह भाई 'नर्ग़ा-ए-दुश्मन' में काम आया है

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

हर एक गाम पे बदनामियों का जमघट है
हर एक मोड़ पे रुसवाइयों के मेले हैं
न दोस्ती, न तकल्लुफ, न दिलबरी, न ख़ुलूस
किसी का कोई नहीं आज सब अकेले हैं

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

वह रहगुज़र जो मेरे दिल की तरह सूनी है
न जाने तुमको कहाँ ले के जाने वाली है
तुम्हें खरीद रहे हैं ज़मीर के कातिल
उफ़क पे खूने-तमन्नाए-दिल की लाली है

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वह शाम है अब तक याद मुझे
चाहत के सुनहरे ख़्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे

उस शाम मुझे मालूम हुआ खेतों की तरह इस दुनियाँ में
सहमी हुई दोशीज़ाओं की मुसकान भी बेची जाती है

उस शाम मुझे मालूम हुआ, इस कारगहे-ज़रदारी में
दो भोली-भाली रूहों की पहचान भी बेची जाती है

उस शाम मुझे मालूम हुआ जब बाप की खेती छिन जाये
ममता के सुनहरे ख्वाबों की अनमोल निशानी बिकती है

उस शाम मुझे मालूम हुआ, जब भाई जंग में काम आये
सरमाए के कहबाख़ाने में बहनों की जवानी बिकती है

सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वह शाम है अब तक याद मुझे
चाहत के सुनहरे ख्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे

तुम आज ह्ज़ारों मील यहाँ से दूर कहीं तनहाई में
                         या बज़्मे-तरब आराई में
मेरे सपने बुनती होगी बैठी आग़ोश पराई में।

और मैं सीने में ग़म लेकर दिन-रात मशक्कत करता हूँ,
                         जीने की खातिर मरता हूँ,
अपने फ़न को रुसवा करके अग़ियार का दामन भरता हूँ।

मजबूर हूँ मैं, मजबूर हो तुम, मजबूर यह दुनिया सारी है,
                         तन का दुख मन पर भारी है,
इस दौरे में जीने की कीमत या दारो-रसन या ख्वारी है।

मैं दारो-रसन तक जा न सका, तुम जहद की हद तक आ न सकीं
                         चाहा तो मगर अपना न सकीं
हम तुम दो ऐसी रूहें हैं जो मंज़िले-तस्कीं पा न सकीं।

जीने को जिये जाते हैं मगर, साँसों में चितायें जलती हैं,
                         खामोश वफ़ायें जलती हैं,
संगीन हक़ायक़-ज़ारों में, ख्वाबों की रिदाएँ जलती हैं।

और आज इन पेड़ों के नीचे फिर दो साये लहराये हैं,
                         फिर दो दिल मिलने आए हैं,
फिर मौत की आंधी उट्ठी है, फिर जंग के बादल छाये हैं,

मैं सोच रहा हूँ इनका भी अपनी ही तरह अंजाम न हो,
                         इनका भी जुनू बदनाम न हो,
इनके भी मुकद्दर में लिखी इक खून में लिथड़ी शाम न हो॥

सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वह शाम है अब तक याद मुझे
चाहत के सुनहरे ख्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे॥

हमारा प्यार हवादिस की ताब ला न सका,
मगर इन्हें तो मुरादों की रात मिल जाये।

हमें तो कश्मकशे-मर्गे-बेअमा ही मिली,
इन्हें तो झूमती गाती हयात मिल जाये॥

बहुत दिनों से है यह मश्ग़ला सियासत का,
कि जब जवान हों बच्चे तो क़त्ल हो जायें।

बहुत दिनों से है यह ख़ब्त हुक्मरानों का,
कि दूर-दूर के मुल्कों में क़हत बो जायें॥

बहुत दिनों से जवानी के ख्वाब वीराँ हैं,
बहुत दिनों से मुहब्बत पनाह ढूँढती है।

बहुत दिनों में सितम-दीद शाहराहों में,
निगारे-ज़ीस्त की इस्मत पनाह ढूँढ़ती है॥

चलो कि आज सभी पायमाल रूहों से,
कहें कि अपने हर-इक ज़ख्म को जवाँ कर लें।

हमारा राज़, हमारा नहीं सभी का है,
चलो कि सारे ज़माने को राज़दाँ कर लें॥

चलो कि चल के सियासी मुकामिरों से कहें,
कि हम को जंगो-जदल के चलन से नफ़रत है।

जिसे लहू के सिवा कोई रंग रास न आये,
हमें हयात के उस पैरहन से नफ़रत है॥

कहो कि अब कोई कातिल अगर इधर आया,
तो हर कदम पे ज़मीं तंग होती जायेगी।

हर एक मौजे हवा रुख बदल के झपटेगी,
हर एक शाख रगे-संग होती जायेगी॥

उठो कि आज हर इक जंगजू से कह दें,
कि हमको काम की खातिर कलों की हाजत है।

हमें किसी की ज़मीं छीनने का शौक नहीं,
हमें तो अपनी ज़मीं पर हलों की हाजत है॥

कहो कि अब कोई ताजिर इधर का रुख न करे,
अब इस जा कोई कंवारी न बेची जाएगी।

ये खेत जाग पड़े, उठ खड़ी हुई फ़सलें,
अब इस जगह कोई क्यारी न बेची जायेगी॥

यह सर ज़मीन है गौतम की और नानक की,
इस अर्ज़े-पाक पे वहशी न चल सकेंगे कभी।

हमारा खून अमानत है नस्ले-नौ के लिए,
हमारे खून पे लश्कर न पल सकेंगे कभी॥

कहो कि आज भी हम सब अगर खामोश रहे,
तो इस दमकते हुए खाकदाँ की खैर नहीं।

जुनूँ की ढाली हुई ऐटमी बलाओं से,
ज़मीं की खैर नहीं आसमाँ की खैर नहीं॥

गुज़श्ता जंग में घर ही जले मगर इस बार,
अजब नहीं कि ये तनहाइयाँ भी जल जायें।

गुज़श्ता जंग में पैकर जले मगर इस बार,
अजब नहीं कि ये परछाइयाँ भी जल जायें॥
- साहिर लुधियानवी