Thursday 25 February 2016

फ़राज़ साहब

फ़राज़ साहब
1-
वो दुशमने-जाँ, जान से प्यारा भी कभी था..
अब किससे कहें कोई हमारा भी कभी था....

उतरा है रग-ओ-पै में तो दिल कट सा गया है...
ये ज़ेहरे-जुदाई के गवारा भी कभी था...

हर दोस्त जहाँ अबरे-गुरेज़ाँ की तरह है...
ये शहर यही शहर हमारा भी कभी था....

तित्ली के तअक़्क़ुब्में कोई फूल सा बच्चा...
ऎसा ही कोई ख्वाब हमारा भी कभी था....

अब अगले ज़माने के मिलें लोग तो पूछें...
जो हाल हमारा है तुम्हारा भी कभी था.....

हर बज़्म में हमने उसे अफ़सुर्दा ही देखा...
कहते हैं फ़राज़ अंजुमन आरा भी कभी था....

2-
 अच्छा था अगर ज़ख्म न भरते कोई दिन और
उस कू-ए-मलामत में गुजरते कोई दिन और

रातों के तेरी यादों के खुर्शीद उभरते
आँखों में सितारे से उभरते कोई दिन और

हमने तुझे देखा तो किसी और को ना देखा
ए काश तेरे बाद गुजरते कोई दिन और

राहत थी बहुत रंज में हम गमतलबों को
तुम और बिगड़ते तो संवरते कोई दिन और

गो तर्के-तअल्लुक था मगर जाँ पे बनी थी
मरते जो तुझे याद ना करते कोई दिन और

उस शहरे-तमन्ना से 'फ़राज़' आये ही क्यों थे
ये हाल अगर था तो ठहरते कोई दिन और

3-
दिल भी बुझा हो शाम की परछाइयाँ भी हों
मर जाइये जो ऐसे में तन्हाइयाँ भी हों

आँखों की सुर्ख़ लहर है मौज-ए-सुपरदगी
ये क्या ज़रूर है के अब अंगड़ाइयाँ भी हों

हर हुस्न-ए-सादा लौह न दिल में उतर सका
कुछ तो मिज़ाज-ए-यार में गहराइयाँ भी हों

दुनिया के तज़करे तो तबियत ही ले बुझे
बात उस की हो तो फिर सुख़न आराइयाँ भील हों

पहले पहल का इश्क़ अभी याद है "फ़राज़"
दिल ख़ुद ये चाहता है के रुस्वाइयाँ भी हों

1.मौज-ए-सुपरदगी - अपने को सौंपने की इच्छा,  2.लौह - सादा दिल,  3. तज़करे -किस्से, 4. आराइयाँ - बात बनाने की कला, 5. रुस्वाइयाँ - बदनामियाँ


4-
तुम जमाना-आशना, तुमसे जमाना ना-आशना
और हम अपने लिए भी अजनबी, ना-आशना

रास्ते भर कि रिफाक़त भी बहुत है जानेमन
वरना मंजिल पर पहुच कर कौन किसका आशना

मुद्दते गुजरी इसी बस्ती में लेकिन अब तलक
लोग नावाकिफ, फ़ज़ा बेगाना, हम ना-आशना

हम भरे शहरो में भी तन्हा है जाने किस तरह
लोग वीराने में भी पैदा कर लेते है आशना

अपनी बर्बादी पे कितने खुश थे हम लेकिन फ़राज़
दोस्त दुश्मन का निकल आया है अपना आशना
                                                 - अहमद फ़राज़
5-
उसने सुकूत-ए-शब् में भी अपना पयाम रख दिया
हिज्र की रात बाम पर माह-ए-तमाम रख दिया

[(सुकूत-ए-शब् = रात की ख़ामोशी); (पयाम = सन्देश); (हिज्र = बिछोह, जुदाई); (बाम = छत); (माह-ए-तमाम = पूनम का चाँद)]

आमद-ए-दोस्त की नवीद कू-ए-वफ़ा में आम थी
मैंने भी इक चिराग सा दिल सर-ए-शाम रख दिया

[आमद-ए-दोस्त = दोस्त का आगमन ; (नवीद = अच्छी खबर); (कू-ए-वफ़ा = वफ़ा की गली); (सर-ए-शाम = शाम होने पर)]

शिद्दत-ए-तश्नगी में भी गैरत-ए-मयकशी रही
उसने जो फेर ली नज़र मैंने भी जाम रख दिया

[शिद्दत-ए-तश्नगी = प्यास की तीव्रता]

देखो ये मेरे ख्वाब थे, देखो ये मेरे ज़ख्म हैं
मैंने तो सब हिसाब-ए-जां बर-सर-ए-आम रख दिया

[(हिसाब-ए-जां = ज़िन्दगी का हिसाब); (सर-ए-आम = सब के सामने)]

उसने नज़र नज़र में ही ऐसे भले सुखन कहे
मैंने तो उसके पांव में सारा कलाम रख दिया

[]सुखन = कथन, कविता]

और 'फ़राज़' चाहिए कितनी मुहब्बतें तुझे
की माओं ने तेरे नाम पर बच्चों का नाम रख दिया
-अहमद फ़राज़

6-
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं

सुना है रब्त है उसको ख़राब-हालों से
सो अपने आप को बर्बाद कर के देखते हैं

[रब्त = सम्बन्ध, मेल]

सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं

[(गाहक = खरीददार); (चश्म-ए-नाज़ = गर्वीली आँखें)]

सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोइज़े अपने हुनर के देखते हैं

[(शगफ़ = जूनून, धुन); (मोइज़े = जादू)]

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं

सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फलक से उतर के देखते हैं

(बाम-ए-फलक = आसमान की छत)

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनूं ठहर के देखते हैं

सुना है रात से बढ़ कर है काकुलें उसकी
सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं

[काकुलें = जुल्फें]

सुना है हश्र है उसकी ग़ज़ाल सी आँखें
सुना है उसको हिरन दश्तभर के देखते हैं

[(हश्र = क़यामत); (ग़ज़ाल = हिरन); (दश्तभर = पूरा जंगल)]

सुना है उस की स्याह चश्मगी क़यामत है
सो उसको सुरमाफ़रोश आँख भर के देखते हैं

[स्याह चश्मगी = काली आँखें; (सुरमाफ़रोश = काजल बेचने वाले)]

सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पे इलज़ाम धर के देखते हैं

सुना है आइना तमसाल है ज़बीं उसकी
जो सादादिल हैं उसे बन संवर के देखते हैं

[(तमसाल = मिसाल, उपमा); (ज़बीं = माथा); (सादादिल = साफ़ दिल वाले)]

सुना है उसके बदन की तराश ऐसी है
की फूल अपनी कबायें क़तर के देखते हैं

[कबायें = कपड़े]

बस इक निगाह में लुटता है काफ़िला दिल का
सो रह-रवां-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं

[रह-रवां-ए-तमन्ना = राहगीरों की तमन्ना]

सुना है उसके सबिस्तां से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीं उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं

[(सबिस्तां = शयनकक्ष); (मुत्तसिल = पास, बगल में); (बहिश्त = स्वर्ग); (मकीं = किरायेदार)]

किसे नसीब के बे-पैरहन उसे देखे
कभी कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं

[(बे-पैरहन = बिना कपड़ो के); (दर-ओ-दीवार = दरवाज़े और खिड़कियाँ)]

रुकें तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं
चलें तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं

[गर्दिशें = विपत्ति; तवाफ़ = प्रदक्षिणा]

कहानियाँ ही सही, सब मुबालगे ही सही
अगर ये ख़्वाब है, ताबीर कर के देखते हैं

[(मुबालगे = अत्त्युक्ति, बहुत बढ़ा चढ़ा कर कही हुई बात); (ताबीर = परिणाम, फल) ]

अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जाएँ
'फ़राज़' आओ सितारे सफ़र के देखते हैं

-अहमद फ़राज़

8-
मैं क्या करूँ मेरे क़ातिल न चाहने पर भी,
तेरे लिए मेरे दिल से दुआ निकलती है ।

वो ज़िन्दगी हो कि दुनिया 'फ़राज़' क्या कीजे,
कि जिससे इश्क़ करो बेवफ़ा निकलती है ।
-अहमद फ़राज़

9-
जी में जो आती है कर गुज़रो कहीं ऐसा न हो,
कल पशेमाँ हों कि क्यों दिल का कहा माना नहीं।

(पशेमाँ = लज्जित, शर्मिंदा)

ज़िन्दगी पर इससे बढ़कर तंज़ क्या होगा 'फ़राज़',
उसका ये कहना कि तू शायर है, दीवाना नहीं।

(तंज़ = ताना, व्यंग्य)

10-
कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो,
बहुत कड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो।

तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है,
यह जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो।

यह एक शब की मुलाक़ात भी ग़नीमत है,
किसे है कल की ख़बर थोड़ी दूर साथ चलो।

अभी तो जाग रहे हैं चिराग़ राहों के,
अभी है दूर सहर थोड़ी दूर साथ चलो।

तवाफ़-ए-मन्ज़िल-ए-जानाँ हमें भी करना है,
'फ़राज़' तुम भी अगर थोड़ी दूर साथ चलो।

(तवाफ़-ए-मन्ज़िल-ए-जानाँ = महबूब के घर का चक्कर)

11-
तुम भी ख़फ़ा हो लोग भी बरहम हैं दोस्तों,
अब हो चला यक़ीं कि बुरे हम हैं दोस्तों ।

(बरहम = नाराज़)

किस को हमारे हाल से निस्बत है क्या करें,
आँखें तो दुश्मनों की भी पुरनम हैं दोस्तो ।

(निस्बत = लगाव)

अपने सिवा हमारे न होने का ग़म किसे,
अपनी तलाश में तो हमीं हम हैं दोस्तों ।

कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा-बुझा,
कुछ शहर के चराग़ भी मद्धम हैं दोस्तों ।

इस शहर-ए-आरज़ू से भी बाहर निकल चलो,
अब दिल की रौनक़ें भी कोई दम हैं दोस्तो ।

सब कुछ सही 'फ़राज़' पर इतना ज़रूर है,
दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम हैं दोस्तो ।


12-
तू पास भी हो तो दिल बेक़रार अपना है
कि हमको तेरा नहीं इन्तज़ार अपना है

मिले कोई भी तेरा ज़िक्र छेड़ देते हैं
कि जैसे सारा जहाँ राज़दार अपना है

वो दूर हो तो बजा तर्के-दोस्ती का ख़याल
वो सामने हो तो कब इख़्तियार अपना है

(तर्के-दोस्ती = दोस्ती का त्याग)

ज़माने भर के दुखो को लगा लिया दिल से
इस आसरे पे कि एक ग़मगुसार अपना है

बला से जाँ का ज़ियाँ हो, इस एतमाद की ख़ैर
वफ़ा करे न करे फिर भी यार अपना है

[(जाँ का ज़ियाँ = जान का नुकसान  ), (एतमाद  = भरोसा, विश्वास)]

'फ़राज़' राहते-जाँ भी वही है क्या कीजे
वह जिसके हाथ से सीना फ़िगार अपना है

[(राहते-जाँ = सुखदायी ), (फ़िगार = घायल, ज़ख़्मी)]


13-
फिर उसी रहगुज़ार पर शायद
हम कभी मिल सकें मगर शायद

जान-पहचान से भी क्या होगा,
फिर भी ऐ दोस्त गौर कर! शायद

मुंतज़िर जिनके हम रहे उनको,
मिल गए और हमसफ़र, शायद

(मुंतज़िर = प्रतीक्षारत)
अजनबियत की धुंध छट जाए,
चमक उट्ठे तेरी नज़र शायद

ज़िन्दगी भर लहू रुलायेगी,
यादे-याराने-बेख़बर शायद

जो भी बिछडे वो कब मिले हैं 'फ़राज़'
फिर भी तू इंतज़ार कर शायद

14-
तेरी बातें ही सुनाने आए,
दोस्त भी दिल ही दुखाने आए.

फूल खिलते हैं तो हम सोचते हैं,
तेरी आने के ज़माने आए.

अब तो रोने से भी दिल दुखता है,
शायद अब होश ठिकाने आए.

सो रहो मौत के पहलू में फ़राज़,
नींद किस वक्त न जाने आए.
-अहमद फ़राज़

15
 अहमद फ़राज़
मुहासरा [ घेराव ]/ अहमद फ़राज़

मेरे ग़नीम[1] ने मुझको पयाम भेजा है
कि हल्क़ाज़न[2] हैं मेरे गिर्द लश्करी [3] उसके
फ़सीले-शहर[4] के हर बुर्ज, हर मीनार पर
कमां-बदस्त[5]सितादा[6] है अस्ककी [7] उसके

वह बर्क़लहर [8]बुझा दी गई जिसकी तपिश
वजूदे-ख़ाक [9] में आतिशफ़िश़ां[10] जगाती है
बिछा दिया गया बारूद उसके पानी में
वो जूएआब [11] जो मेरी गली को आती है

सो शर्त यह है जो जां की अमान चाहते हो
तो अपने लौहो क़लम क़त्लगाह में रख दो
वगर्ना अबके निशान कमानदारों का
बस एक तुम हो,सो ग़ैरत को राह में रख दो

यह ़शर्तनामा जो देखा तो ऐलची[12] से कहा
उसे ख़बर नहीं तारीख़ क्या सिखाती है
कि रात जब किसी ख़ुर्शीद[13] को शहीद करे
तो सुबह इक नया सूरज तराश लाती है

सो यह जवाब है मेरा मेरे अदू[14] के लिए
कि मुझको हिर्स-करम[15]  है न ख़ौफ़े-ख़म्याज़ा[16]
उस है सतवते-शमशीर[17] पर घमंड बहुत
उस शिकवाए  क़लम का नहीं है अंदाज़ा

मेरा क़लम नी किरदार उस मुहाफ़िज[18] का
जो अपने शहर को महसूर[19] करके नाज़ करे
मेरा क़लम नहीं कासा[20] किसी सुबुक सर[21] का
जो गासिबों[22] को क़सीदों से सरफ़राज़[23] करे

मेरा क़लम नही उस नक़बज़न का दस्ते-हवस[24]
जो अपने घर की ही छत में शगाफ़[25] डालता है
मेरा क़लम नही उस दुज़्द्े नीमशब[26] का रफ़ीक
जो बेचराग़ घरो़ं पर कमंद उछालता है ।

मेरा क़लम नही तस्बीह[27] उस मुबल्लिग[28] की
जो बंदगी का भी हरदम हिसाब रखता है
मेरा क़लम नहीं मीज़ान[29] ऐसे आदिल[30] की
जो अपने चेहरे पर दोहरा नक़ाब रखता है ।

शब्दार्थ 1-शत्रु  2-घेरे हुए 3 -सैनिक 4-नगर की चारदीवारी 5 -कमान हाथ में लिए हुए 6-तैयार 7 -सैनिक 8-बिजली की लहर, 9-मिट्टी का पुतला,10-ज्वालामुखी,11-नहर 12-दूत 13-सूर्य 14-शत्रु,15-पुरस्कार की लालसा, 16-प्रतिफल का ड़र,17-तलवार की धाक, 18-रक्षक,19-घेरकर, 20-कवच, 21-अभिमानी, 22- अतिक्रमी, 23-मशहूर, 24- वासना का हाथ, 25-दरार, 26- आधी रात को चोरी करने वाला, 27-माला, 28-धर्म उपदेशक, 29-तराज़ू, 30- न्यायाधीश,

16-
रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मोहब्बत[1]का भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ

पहले से मरासिम[2] न सही, फिर भी कभी तो
रस्मों-रहे[3] दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से ख़फ़ा है, तो ज़माने के लिए आ

इक उम्र से हूँ लज़्ज़त-ए-गिरिया[4] से भी महरूम[5]
ऐ राहत-ए-जाँ [6]मुझको रुलाने के लिए आ

अब तक दिल-ए-ख़ुशफ़हम[7] को तुझ से हैं उम्मीदें
ये आखिरी शमएँ भी बुझाने के लिए आ


शब्दार्थ:
1. ↑ प्रेम का गर्व
2. ↑ प्रेम-व्यहवार
3. ↑ सांसारिक शिष्टाचार
4. ↑ रोने का स्वाद
5. ↑ वंचित
6. ↑ प्राणाधार
7. ↑ किसी की ओर से अच्छा विचार रखने वाला मन

17-
चलो ये इश्क़ नहीं चाहने की आदत है
कि क्या करें हमें दू्सरे की आदत है

तू अपनी शीशा-गरी का हुनर न कर ज़ाया[1]
मैं आईना हूँ मुझे टूटने की आदत है

मैं क्या कहूँ के मुझे सब्र क्यूँ नहीं आता
मैं क्या करूँ के तुझे देखने की आदत है

तेरे नसीब में ऐ दिल सदा की महरूमी[2]
न वो सख़ी[3] न तुझे माँगने की आदत है

विसाल[4] में भी वो ही है फ़िराक़[5] का आलम
कि उसको नींद मुझे रत-जगे की आदत है

ये मुश्क़िलें हों तो कैसे रास्ते तय हों
मैं ना-सुबूर[6] उसे सोचने की आदत है

ये ख़ुद-अज़ियती कब तक "फ़राज़" तू भी उसे
न याद कर कि जिसे भूलने की आदत है

शब्दार्थ:
ज़ाया - व्यर्थ
↑ वंचितता
↑ दानवीर
↑ मिलन
↑ जुदाई
↑ ना-समझ

18-

तुझसे बिछड़ के हम भी मुकद्दर के हो गये
फिर जो भी दर मिला है उसी दर के हो गये

फिर यूँ हुआ के गैर को दिल से लगा लिया
अंदर वो नफरतें थीं के बाहर के हो गये

क्या लोग थे के जान से बढ़ कर अजीज थे
अब दिल से मेह नाम भी अक्सर के हो गये

ऐ याद-ए-यार तुझ से करें क्या शिकायतें
ऐ दर्द-ए-हिज्र हम भी तो पत्थर के हो गये

समझा रहे थे मुझ को सभी नसेहान-ए-शहर
फिर रफ्ता रफ्ता ख़ुद उसी काफिर के हो गये

अब के ना इंतेज़ार करें चारगर का हम
अब के गये तो कू-ए-सितमगर के हो गये

रोते हो एक जजीरा-ए-जाँ को "फ़राज़" तुम
देखो तो कितने शहर समंदर के हो गये

19-
जो भी दुख याद न था याद आया
आज क्या जानिए क्या याद आया

फिर कोई हाथ है दिल पर जैसे
फिर तेरा अहदे-वफ़ा[1]याद आया

जिस तरह धुंध में लिपटे हुए फूल
एक-इक नक़्श[2]तिरा याद आया

ऐसी मजबूरी के आलम[3]में कोई
याद आया भी तो क्या याद आया

ऐ रफ़ीक़ो[4]! सरे-मंज़िल जाकर
क्या कोई आबला-पा[5]याद आया

याद आया था बिछड़ना तेरा
फिर नहीं याद कि क्या याद आया

जब कोई ज़ख़्म भरा दाग़ बना
जब कोई भूल गया याद आया
 
ये मुहब्बत भी है क्या रोग ‘फ़राज़’
जिसको भूले वो सदा याद आया
शब्दार्थ:
↑ वफ़ादारी का प्रण
↑ मुखाकृति
↑ हालत,अवस्था
↑ मित्रो
↑ जिसके पाँवों में छाले पड़े हुए हों

20-
नहीं जो दिल में जगह तो नज़र में रहने दो
मेरी हयात को अपने असर में रहने दो

कोई तो ख़्वाब मेरी रात का मुक़द्दर हो
कोई तो अक्स मेरी चश्म-ए-तर में रहने दो

मैं अपनी सोच को तेरी गली मैं छोड़ आया
तो अपनी याद को मेरे हुनर में रहने दो

ये मंजिलें तो किसी और का मुक़द्दर हैं
मुझे बस अपने जूनून के सफ़र में रहने दो

हकीक़तें तो बहुत तल्ख़ हो गयी हैं "फ़राज़"
मेरे वजूद को ख़्वाबों के घर में रहने दो

21-
वहशत-ए-दिल सिला-ए-आबलापाई ले ले
मुझसे या रब मेरे लफ़्ज़ों की कमाई ले ले

अक़्ल हर बार दिखाती थी जले हाथ अपने
दिल ने हर बार कहा आग पराई ले ले

मैं तो उस सुबह-ए-दरख़्शाँ को तवन्गर जानूँ
जो मेरे शहर से कश्कोल-ए-गदाई ले ले

तू ग़नी है मगर इतनी हैं शरायत मेरी
ये मोहब्बत जो हमें रास न आई ले ले

अपने दीवान को गलियों मे लिये फिरता हूँ
है कोई जो हुनर-ए-ज़ख़्मनुमाई ले ले

और क्या नज़्र करूँ ऐ ग़मे-दिलदारे-फ़राज़
ज़िन्दगी जो ग़मे-दुनिया से बचाई ले ले

22-
सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते
वरना इतने तो मरासिम थे के आते जाते

[मरासिम = संबंध]

शिकवा-ए-ज़ुल्मत-ए-शब् से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शमां जलाते जाते

[शिकवा-ए-ज़ुल्मत-ए-शब् = अँधेरी रात की शिकायत]

कितना आसां था तेरे हिज्र में मरना जाना
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते

{हिज्र = जुदाई]

जश्न-ए-मकतल ही न बरपा हुआ
वरना हम भी पाब-जूलां ही सही नाचते गाते जाते

[मकतल = कत्लखाना, पाब-जूलां = जंजीर से बंधे हुए पैर]

उसकी वो जाने उसे पास-ए-वफ़ा था के न था
तुम फ़राज़ अपनी तरफ से तो निभाते जाते

[पास -ए -वफ़ा = प्यार के लिए सम्मान]

23-

अब के रुत बदली तो ख़ुशबू का सफ़र देखेगा कौन
ज़ख़्म फूलों की तरह महकेंगे पर देखेगा कौन

देखना सब रक़्स-ए-बिस्मल में मगन हो जाएँगे
जिस तरफ़ से तीर आयेगा उधर देखेगा कौन

वो हवस हो या वफ़ा हो बात महरूमी की है
लोग तो फल-फूल देखेंगे शज़र देखेगा कौन

हम चिराग़-ए-शब ही जब ठहरे तो फिर क्या सोचना
रात थी किस का मुक़द्दर और सहर देखेगा कौन

आ फ़सील-ए-शहर से देखें ग़नीम-ए-शहर को
शहर जलता हो तो तुझ को बाम पर देखेगा कौन


24-
आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा

इतना मानूस न हो ख़िल्वत-ए-ग़म से अपनी
तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जाएगा

तुम सर-ए-राह-ए-वफ़ा देखते रह जाओगे
और वो बाम-ए-रफ़ाक़त से उतर जाएगा

किसी ख़ंज़र किसी तलवार को तक़्लीफ़ न दो
मरने वाला तो फ़क़त बात से मर जाएगा

ज़िंदगी तेरी अता है तो ये जानेवाला
तेरी बख़्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जाएगा

डूबते-डूबते कश्ती को उछाला दे दूँ
मैं नहीं कोई तो साहिल पे उतर जाएगा

ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का "फ़राज़"
ज़ालिम अब के भी न रोयेगा तो मर जाएगा


25-
इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की
आज पहली बार मैनें उससे बेवफ़ाई की

वरना अब तलक यूँ था ख़्वाहिशों की बारिश में
या तो टूट कर रोया या फ़िर ग़ज़लसराई की

तज दिया था कल जिन को हमने तेरी चाहत में
आज उनसे मजबूरन ताज़ा आशनाई की

हो चला था जब मुझको इख़्तिलाफ़ अपने से
तूने किस घड़ी ज़ालिम मेरी हमनवाई की

तन्ज़-ओ-ताना-ओ-तोहमत सब हुनर हैं नासेह के
आपसे कोई पूछे हमने क्या बुराई की

फिर क़फ़स में शोर उठा क़ैदियों का और सय्याद
देखना उड़ा देगा फिर ख़बर रिहाई की

26-
इस दौर-ए-बेजुनूँ की कहानी कोई लिखो
ज़िस्मों को बर्फ़ ख़ून को पानी कोई लिखो

कोई कहो कि हाथ क़लम किस तरह हुए
क्यूँ रुक गई क़लम की रवानी कोई लिखो

क्यों अहल-ए-शौक़ सर-व-गरेबाँ हैं दोस्तो
क्यों ख़ूँ-ब-दिल है अहद-ए-जवानी कोई लिखो

क्यों सुर्मा-दर-गुलू है हर एक तायर-ए-सुख़न
क्यों गुलसिताँ क़फ़स का है सानी कोई लिखो

हाँ ताज़ा सानेहों का करे कौन इंतज़ार
हाँ दिल की वारदात पुरानी कोई लिखो

27-
इस से पहले कि बेवफ़ा हो जाएँ
क्यूँ न ए दोस्त हम जुदा हो जाएँ

तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ

हम भी मजबूरियों का उज़्र करें
फिर कहीं और मुब्तिला हो जाएँ

अब के गर तू मिले तो हम तुझसे
ऐसे लिपटें तेरी क़बा हो जाएँ

बंदगी हमने छोड़ दी फ़राज़
क्या करें लोग जब ख़ुदा हो जाएँ

28-
क्या रुखसत-ऐ-यार की घड़ी थी
हंसती हुई रात रो पडी थी

हम ख़ुद ही हुए तबाह वरना
दुनिया को हमारी क्या पडी थी

ये ज़ख्म हैं उन दिनों की यादें
जब आप से दोस्ती बड़ी थी

जाते तो किधर को तेरे वहशी
ज़ंजीर-ऐ-जुनून कड़ी पड़ी थी

गम थे कि 'फ़राज़' आंधियां थी
दिल था कि 'फ़राज़' पंखुडी थी

29-
शोला था जल-बुझा हूँ हवाएं मुझे न दो
मैं कब का जा चुका हूँ सदायें मुझे न दो

जो ज़हर पी चुका हूँ तुम्हीं ने मुझे दिया
अब तुम तो जिंदगी की दुआएं मुझे न दो

यह भी बड़ा करम है सलामत है जिस्म अभी
ऐ खुश्खाने-शहर क़बायें मुझे न दो

ऐसा कहीं न हो के पलटकर न आ सकूँ
हर बार दूर जा के सदायें मुझे न दो

कब मुझ को ऐतेराफ़-ऐ-मुहब्बत न था 'फ़राज़'
कब मैं ने ये कहा था सजाएं मुझे न दो

30-
वो दुशमने-जाँ, जान से प्यारा भी कभी था
अब किससे कहें कोई हमारा भी कभी था

उतरा है रग-ओ-पै में तो दिल कट सा गया है
ये ज़ेहरे-जुदाई के गवारा भी कभी था

हर दोस्त जहाँ अबरे-गुरेज़ाँ की तरह है
ये शहर यही शहर हमारा भी कभी था

तित्ली के तअक़्क़ुब्में कोई फूल सा बच्चा
ऎसा ही कोई ख्वाब हमारा भी कभी था

अब अगले ज़माने के मिलें लोग तो पूछें
जो हाल हमारा है तुम्हारा भी कभी था

हर बज़्म में हमने उसे अफ़सुर्दा ही देखा
कहते हैं फ़राज़ अंजुमन आरा भी कभी था

31-
ख्वाव मरते नहीं!
ख्वाब दिल हैं, ना आंखे, ना सांसे
के जो रेज़ा-रेज़ा हुए तो बिखर जाएंगे
जिस्म की मौत से यह भी मर जाएंगे

ख्वाब मरते नहीं !
ख्वाब तो रोशनी हैं , नवा हैं, हवा हैं
जो काले पहाडों से रूकते नहीं !

जुल्म की दोजखों से भी…
फ़ुकते नहीं रोशनी और हवा के आलम

ख्वाब तो हर्फ़ हैं, ख्वाब नूर हैं
ख्वाब सुकरात हैं, ख्वाब मंसूर है ।

32-
हुई है शाम तो आंखो में बस गया फ़िर तु
कहां गया है मेरे सेहर के मुसाफ़िर तु

बिछडना है तो हंसी खुशी से बिछड जा
यह क्या सोंचता है हर मुक़ाम पे आखिर तु

फ़राज़ तुने उस मुश्किलों में डाल दिया
ज़माना साहिब और सिर्फ़ शायर तु ।

33-
सिवाए तेरे कोई भी दिन रात ना जाने मेरे
तु कहां है मगर अए दोस्त पुराने मेरे

शमा की लौ थी कि वह तु था शब-ए-हिज़्र
देर तक रोता रहा कोई सिरहाने मेरे

आज एक बरस और बीत गया उसके बगैर
जिसके होते हुए होता था ज़माने मेरे

काश तु भी मेरी आवाज़ सुनता हो
फ़िर पुकारा है तुझे दिल की सदा ने मेरे

काश तु भी आ जाए ‘मसीहाई’ को
लोग आते हैं बहुत दिल को दुखाने मेरे ।

34-
ये आलम शौक़ का देखा न जाये
वो बुत है या ख़ुदा देखा न जाये

ये किन नज़रों से तुम ने आज देखा
के तेरा देखना देखा न जाये

हमेशा के लिये मुझ से बिछड़ जा
ये मंज़र बारहा देखा न जाये

ग़लत है जो सुना पर आज़मा कर
तुझे ऐ बेवफ़ा देखा न जाये

ये महरूमी नहीं पास-ए-वफ़ा है
कोई तेरे सिवा देखा न जाये

यही तो आश्ना बनते हैं आख़िर
कोई नाआश्ना देखा न जाये

"फ़राज़" अपने सिवा है कौन तेरा
तुझे तुझ से जुदा देखा न जाये


शब्दार्थ:
आलम - दशा
 शौक़ - अभिलाषा
  बुत - मूर्ति
मंज़र - दृश्य
बारहा - बार-बार
आज़मा - परीक्षा लेकर
बेवफ़ा - जो वफ़ादार न हो
महरूमी - असफलता
आश्ना - परिचित्
नाआश्ना - अपरिचित

35-

एक मुख़्तसर सी नज़्म...

उसने कहा सुन..
अहद निभाने की ख़ातिर मत आना...        
अहद निभानेवाले अक्सर मजबूरी या...
महजूरी की थकन से लौटा करते हैं...          
तुम जाओ और दरिया-दरिया प्यास बुझाओ...
जिन आँखों में डूबो...
जिस दिल में भी उतरो...
मेरी तलब आवाज़ न देगी...
लेकिन जब मेरी चाहत...
और मेरी ख़्वाहिश की लौ...
इतनी तेज़ और इतनी ऊँची हो जाये...
जब दिल रो दे...
तब लौट आना..!!!

शब्दार्थ:
अहद = प्रतिज्ञा, वचन
महजूरी = विरह, वियोग, जुदाई

बेख़्याली में

भीड़ से कट के न बैठा करो तन्हाई में
बेख़्याली में कई शहर उजड़ जाते हैं
निदा फ़ाज़ली

मेरी ख़ुशी के लम्हे

मेरी ख़ुशी के लम्हे इस कदर मुख्तसिर* हैं फ़राज़
गुज़र जाते हैं मेरे मुस्कराने से पहले
* मुख्तसिर = छोटे