Monday 7 March 2016

Ahmad Faraz (अहमद फ़राज़)

1
वो बात बात पे देता है परिंदों की मिसाल
साफ़ साफ़ नहीं कहता मेरा शहर ही छोड़ दो
*****
2
तुम्हारी एक निगाह से कतल होते हैं लोग फ़राज़
एक नज़र हम को भी देख लो के तुम बिन ज़िन्दगी अच्छी नहीं लगती
*****
3

अब उसे रोज़ न सोचूँ तो बदन टूटता है फ़राज़
उमर गुजरी है उस की याद का नशा किये हुए

*****
4

एक नफरत ही नहीं दुनिया में दर्द का सबब फ़राज़
मोहब्बत भी सकूँ वालों को बड़ी तकलीफ़ देती है

*****
5

हम अपनी रूह तेरे जिस्म में छोड़ आए फ़राज़
तुझे गले से लगाना तो एक बहाना था

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6

माना कि तुम गुफ़्तगू के फन में माहिर हो फ़राज़
वफ़ा के लफ्ज़ पे अटको तो हमें याद कर लेना

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7

ज़माने के सवालों को मैं हँस के टाल दूँ फ़राज़
लेकिन नमी आखों की कहती है "मुझे तुम याद आते हो"

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8

अपने ही होते हैं जो दिल पे वार करते हैं फ़राज़
वरना गैरों को क्या ख़बर की दिल की जगह कौन सी है

*****
9

तोड़ दिया तस्बी* को इस ख्याल से फ़राज़
क्या गिन गिन के नाम लेना उसका जो बेहिसाब देता है

* तस्बी  = माला

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10

हम से बिछड़ के उस का तकब्बुर* बिखर गया फ़राज़
हर एक से मिल रहा है बड़ी आजज़ी* के साथ

*  तकब्बुर - घमंड
* आज़ज़ी - विनर्मता
11
उस शख्स से बस इतना सा ताल्लुक़ है फ़राज़
वो परेशां हो तो हमें नींद नहीं आती

*****
12

बर्बाद करने के और भी रास्ते थे फ़राज़
न जाने उन्हें मुहब्बत का ही ख्याल क्यूं आया

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13

तू भी तो आईने की तरह बेवफ़ा निकला फ़राज़
जो सामने आया उसी का हो गया

*****
14

बच न सका ख़ुदा भी मुहब्बत के तकाज़ों से फ़राज़
एक महबूब की खातिर सारा जहाँ बना डाला

*****
15

मैंने आज़ाद किया अपनी वफ़ाओं से तुझे
बेवफ़ाई की सज़ा मुझको सुना दी जाए

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16
मैंने माँगी थी उजाले की फ़क़त इक किरन फ़राज़
तुम से ये किसने कहा आग लगा दी जाए

*****
17
इतनी सी बात पे दिल की धड़कन रुक गई फ़राज़
एक पल जो तसव्वुर किया तेरे बिना जीने का

*****
18

इस तरह गौर से मत देख मेरा हाथ ऐ फ़राज़
इन लकीरों में हसरतों के सिवा कुछ भी नहीं

*****
19
उसने मुझे छोड़ दिया तो क्या हुआ फ़राज़
मैंने भी तो छोड़ा था सारा ज़माना उसके लिए

*****
20
ये मुमकिन नहीं की सब लोग ही बदल जाते हैं
कुछ हालात के सांचों में भी ढल जाते हैं

कौन देता है उम्र भर का सहारा फ़राज़
लोग तो जनाज़े में भी कंधे बदलते रहते हैं

*****
22
वो रोज़ देखता है डूबे हुए सूरज को फ़राज़
काश मैं भी किसी शाम का मंज़र होता

*****
23
खाली हाथों को कभी गौर से देखा है फ़राज़
किस तरह लोग लकीरों से निकल जाते हैं

*****
24
मेरी ख़ुशी के लम्हे इस कदर मुख्तसिर* हैं फ़राज़
गुज़र जाते हैं मेरे मुस्कराने से पहले

* मुख्तसिर = छोटे

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25
चलता था कभी हाथ मेरा थाम के जिस पर
करता है बहुत याद वो रास्ता उसे कहना

*****
26
उम्मीद वो रखे न किसी और से फ़राज़
हर शख्स मुहब्बत नहीं करता उसे कहना

*****
27
वो बारिश में कोई सहारा ढूँढता है फ़राज़
ऐ बादल आज इतना बरस की मेरी बाँहों को वो सहारा बना ले

*****
28

गिला करें तो कैसे करें फ़राज़
वो लातालुक़ सही मगर इंतिखाब तो मेरा है

*****
29

ये वफ़ा उन दिनों की बात है फ़राज़
जब लोग सच्चे और मकान कच्चे हुआ करते थे

*****
30

दीवार क्या गिरी मेरे कच्चे मकान की फ़राज़
लोगों ने मेरे घर से रास्ते बना लिए

कभी टूटा नहीं मेरे दिल से आपकी याद का तिलिस्म फ़राज़
गुफ़्तगू जिससे भी हो ख्याल आपका रहता है

*****
32
चाहने वाले मुक़द्दर से मिला करते हैं फ़राज़
उस ने इस बात को तस्लीम* किया मेरे जाने के बाद

* तस्लीम  =  कबूल
*****
33

दोस्ती अपनी भी असर रखती है फ़राज़
बहुत याद आएँगे ज़रा भूल कर तो देखो

Dosti apni bhi asar rakhti hai Faraz
Bahut yaad aayenge jara bhool ke dekho

*****
34
मुहब्बत में मैंने किया कुछ नहीं लुटा दिया फ़राज़
उस को पसंद थी रौशनी और मैंने खुद को जला दिया

*****
35
कभी हिम्मत तो कभी हौसले से हार गए
हम बदनसीब थे जो हर किसी से हार गए
अजब खेल का मैदान है ये दुनिया फ़राज़
कि जिसको जीत चुके उसी से हार गए

*****
36

फुर्सत मिले तो कभी हमें भी याद कर लेना फ़राज़
बड़ी पुर रौनक होती हैं यादें हम फकीरों की

*****
37
वो बाज़ाहिर तो मिला था एक लम्हे को फ़राज़
उम्र सारी चाहिए उसको भुलाने के लिए

*****
38

वक़्त-ए-नज़ा है, इस कशमकश में हूँ की जान किसको दूं फ़राज़
वो भी आए बैठे हैं और मौत भी आई बैठी है

* वक़्त-ए-नज़ा  =  तमाशे का समय
*****
39
एक पल जो तुझे भूलने का सोचता हूँ फ़राज़
मेरी साँसें मेरी तकदीर से उलझ जाती हैं

*****
40
सवाब समझ कर वो दिल के टुकड़े करता है फ़राज़
गुनाह समझ कर हम उन से गिला नहीं करते

मोहब्बत के अंदाज़ जुदा होते हैं फ़राज़
किसी ने टूट के चाहा और कोई चाह के टूट गया

*****
42
जब उसका दर्द मेरे साथ वफ़ा करता है
एक समुन्दर मेरी आँखों से बहा करता है

*****
43

मैं डूब के उभरा तो बस इतना ही देखा है फ़राज़
औरों की तरह तू भी किनारे पे खड़ा था

*****
44
वो ये समझता है की मैं हर चेहरे का तलबगार* हूँ फ़राज़
मैं देखता सभी को हूँ बस उस की तलाश में हूँ
* तलबगार  =  इच्छुक
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45
आँखों में हया हो तो पर्दा दिल का ही काफी है फ़राज़
नहीं तो नकाबों से भी होते हैं इशारे मोहब्बत के

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46
ये सोच कर तेरी महफ़िल में चला आया हूँ फ़राज़
तेरी सोहबत में रहूँगा तो संवर जाऊंगा

*****
47

ये ही सोच कर उस की हर बात को सच माना है फ़राज़
के इतने खूबसूरत लब झूठ कैसे बोलते होंगे

*****
48
मेरे लफ़्ज़ों की पहचान अगर कर लेता वो फ़राज़
उसे मुझ से नहीं खुद से मुहब्बत हो जाती

*****
49

उस की निगाह में इतना असर था फ़राज़
खरीद ली उसने एक नज़र में ज़िन्दगी हमारी
50
वो बेवफा न था यूँ ही बदनाम हो गया फ़राज़
हजारों चाहने वाले थे वो किस किस से वफ़ा करते

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52

मेरे दोस्त की पहचान यही काफी है
वो हर शख्स को दानिस्ता* खफा करता है
* दानिस्ता  =  जान बूझकर

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53

जब खिज़ां आए तो लौट आएगा वो भी फ़राज़
वो बहारों में ज़रा कम ही मिला करता है फ़राज

*****
54

अक्ल वालों के मुक़द्दर ये ज़ोक-ए-जुनूं कहाँ फ़राज़
ये इश्क वाले हैं जो हर चीज़ लुटा देते हैं

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55
उसकी बातें मुझे खुशबू की तरह लगती हैं
फूल जैसे कोई सेहरा में खिला करता है

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56

फिर इतने मायूस क्यूँ हो उसकी बेवफाई पर फ़राज़
तुम खुद ही तो कहते थे की वो सब से जुदा है

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57

रूठ जाने की अदा हम को भी आती है फ़राज़
काश होता कोई हम को भी मनाने वाला

*****
58

वो जानता था उसकी मुस्कुराहट मुझे पसंद है फ़राज़
उसने जब भी दर्द दिया मुस्कुराते हुए दिया

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59
किस किस से मुहब्बत के वादे किये हैं तू ने फ़राज़
हर रोज़ एक नया शख्स तेरा नाम पूछता है

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60

किताबों से दलीलें दूं या खुद को सामने रख दूं फ़राज़
वो मुझ से पूछ बैठी हैं मुहब्बत किसको कहते हैं
61

तुम मुझे मौक़ा तो दो ऐतबार बनाने का फ़राज़
थक जाओगे मेरी वफ़ा के साथ चलते चलते

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62

वफ़ा की लाज में उसको मना लेते तो अच्छा था फ़राज़
अना की जंग में अक्सर जुदाई जीत जाती है
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63
मैं वफ़ा का कौन सा सलीका इख्तियार करूं फ़राज़
उसे यकीन हो जाए के मुझे वो हर एक से प्यारा है

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64

वफ़ा की आज भी क़दर वही है फ़राज़
फकत मिट चुके हैं टूट के चाहने वाले

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65

उस से बिछड़े तो मालूम हुआ की मौत भी कोई चीज़ है फ़राज़
ज़िन्दगी वो थी जो हम उसकी महफ़िल में गुज़ार आए

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66

उम्मीद-ए-वफ़ा ना रख उन लोगों से फ़राज़
जो मिलते हैं किसी से होते हैं किसी के

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67

हम ने सुना था की दोस्त वफ़ा करते हैं फ़राज़
जब हम ने किया भरोसा तो रिवायत ही बदल गई

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68

बस यही आदत उसकी मुझे अच्छी लगती है फ़राज़
उदास कर के मुझे भी वो खुश नहीं रहता

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69

हजूम ए दोस्तों से जब कभी फुर्सत मिले
अगर समझो मुनासिब तो हमें भी याद कर लेना

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70

हमारे बाद नहीं आएगा तुम्हे चाहत का ऐसा मज़ा फ़राज़
तुम लोगों से खुद कहते फिरोगे की मुझे चाहो तो उसकी तरह

कसूर नहीं इसमें कुछ भी उनका फ़राज़
हमारी चाहत ही इतनी थी की उन्हें गुरूर आ गया

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72

इतना न याद आया करो कि रात भर सो न सकें फ़राज़
सुबह को सुर्ख आखों का सबब पूछते हैं लोग

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73

कभी कभी तो रो पड़ती हैं यूँ ही आँखें
उदास होने का कोई सबब नहीं होता

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74

मैं अपने दिल को ये बात कैसे समझाऊँ फ़राज़
कि किसी को चाहने से कोई अपना नहीं होता

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75

कितना खौफ़ होता है शाम के अंधेरों में फ़राज़
पूछ उन परिंदों से जिन के घर नहीं होते

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76

कांच की तरह होते हैं गरीबों के दिल फ़राज़
कभी टूट जाते हैं तो कभी तोड़ दिए जाते हैं

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77

महफ़िल से उठ के जाना तो कोई बात नहीं थी फ़राज़
मेरा मुड़ मुड़ के देखना उसे बदनाम कर गया

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78

मुझको मालूम नहीं हुस्न की तारीफ फ़राज़
मेरी नज़रों में हसीन वो है जो तुझ जैसा हो

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79

इस तरह गौर से मत देख मेरा हाथ फ़राज़
इन लकीरों में हसरतों के सिवा कुछ भी नहीं

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80

समंदर में फ़ना होना तो किस्मत की कहानी है फ़राज़
जो मरते हैं किनारों पे मुझे दुःख उन पे होता हैं

कुछ मुहब्बत का नशा था पहले हमको फ़राज़
 दिल जो टुटा तो नशे से मुहब्बत हो गई

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82

जो कभी हर रोज़ मिला करते थे फ़राज़
वो चेहरे तो अब ख़ाब ओ ख़याल हो गए

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83

तू किसी और के लिए होगा समन्दर ए इश्क़ फ़राज़
हम तो रोज़ तेरे साहिल से प्यासे गुज़र जाते हैं

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84

उसे तेरी इबादतों पे यकीन है नहीं फ़राज़
जिस की ख़ुशियां तू रब से रो रो के मांगता है

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85

उसकी जफ़ाओं ने मुझे एक तहज़ीब सिख दी है फ़राज़
मैं रोते हुए सो जाता हूँ पर शिकवा नहीं करता

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86

उस शख्स से वाबस्ता खुशफहमी का ये आलम है फ़राज़
मौत की हिचकी आई तो मैं समझा कि उसने याद किया

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87
नाकाम थीं मेरी सब कोशिशें उस को मनाने की फ़राज़
पता नहीं कहाँ से सीखीं जालिम ने अदाएं रूठ जाने की

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88

ये कह कर मुझे मेरे दुश्मन हँसता छोड़ गए
तेरे दोस्त काफी हैं तुझे रुलाने के लिए
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89

ये ज़लज़ले यूँ ही बेसबब नहीं आते
ज़रूर ज़मीन के नीचे कोई दीवाना तड़पता होगा

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90
तपती रही है आस की किरणों पे ज़िन्दगी
लम्हे जुदाइयों के मा - ओ साल हो गए

प्यार में एक ही मौसम है बहारों का "फ़राज़"
लोग कैसे मौसमों की तरह बदल जाते है

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92

वहाँ से एक पानी की बूँद ना निकल सकी "फ़राज़"
तमाम उम्र जिन आँखों को हम झील लिखते रहे

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93

जिसको भी चाहा शिद्दत से चाहा है "फ़राज़"
सिलसिला टूटा नहीं दर्द की ज़ंजीर का

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94

वो शख्स जो कहता था तू न मिला तो मर जाऊंगा "फ़राज़"
वो आज भी जिंदा है यही बात किसी और से कहने के लिए

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95

अकेले तो हम पहले भी जी रहे थे "फ़राज़"
क्यूँ तन्हा से हो गए हैं तेरे जाने के बाद

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96

कुछ ऐसे हादसे भी जिंदगी में होते हैं "फ़राज़"
के इंसान तो बच जाता है मगर जिंदा नहीं रहता

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97

ऐसा डूबा हूँ तेरी याद के समंदर में "फ़राज़"
दिल का धड़कना भी अब तेरे कदमों की सदा लगती है

*****
98

एक ही ज़ख्म नहीं सारा बदन ज़ख्मी है "फ़राज़"
दर्द हैरान है की उठूँ तो कहाँ से उठूँ

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99

तुम्हारी दुनिया में हम जैसे हजारों हैं "फ़राज़"
हम ही पागल थे जो तुम्हे पा के इतराने लगे

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100

तमाम उम्र मुझे टूटना बिखरना था "फ़राज़"
वो मेहरबां भी कहाँ तक समेटता मुझे

इश्क की राह में दो हैं मंजिलें "फ़राज़"
या दिल में उतर जाना या दिल से उतर जाना.

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102

ज़माने के सवालों को मै हंस के टाल दूं "फ़राज़"
लेकिन नमी आँखों की कहती है मुझे तुम याद आते हो

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103

वफायें कोई हमसे सीखे "फ़राज़"
जिसे टूट के चाहा उसे खबर भी नहीं

*****
104

ये वफ़ा तो उन दिनों की बात ही "फ़राज़"
जब लोग सच्चे और मकान कच्चे हुआ करते थे

*****
105

मेरे सजदों में कमी तो न थी "फ़राज़"
या मुझ से भी बढ़कर के किसी ने उसको माँगा था खुदा से

Mere sajdon me kami to na thi "Faraz"
Ya mujhse bhi badh kar k kisi ne usko manga tha khuda se

*****
106

वो अपने फायदे के लिए आ मिले थे हमसे "फ़राज़"
हम नादान समझे के हमारी दुआओं में असर है

Wo apne faayde k liye aa mile the hum se "Faraz"
Hum naadaan samjhe k humari duaon me asar hai

*****
107

हमारे सब्र की इंतहां क्या पूछते हो "फ़राज़"
वो हम से लिपट के रो रहे थे किसी और के लिए

Hamare sabar ki inteha kya puchte ho "Faraz"
Wo hum se lipat ke ro rahe the kisi aur ke liye

*****
108

रूठ जाने की अदा हम को भी आती है "फ़राज़"
काश होता कोई हमको भी मनाने वाला

Rooth jane ki ada hum ko bhi ati hai "Faraz ",
Kaash hota koi hum ko bhi manane wala

*****
109

ये ही सोचकर उसकी हर बात को सच माना है "फ़राज़"
के इतने खूबसूरत लब झूठ कैसे बोलेंगे.....??

Yehi soch kar uski har baat ko such mana hai "Faraz"
Ki inte khoobsurat lab jhuth kaise bolenge....???

*****
110

राज़ ऐ दिल किसी को न सुनाना "फ़राज़"
दुनिया में सब हमराज़ बदल जाते हैं

तेरी इस बेवफाई पे फिदा होती है जान अपनी "फराज़"
खुदा जाने अगर तुझमें वफा होती तो क्या  होता

Teri is bewafai per fida hoti hai jaan apni "Faraz",
Khuda jane agar tujhme wafa hoti to kya hota

*****
112

दुनीया का भी अज़ीब दस्तूर है "फराज़",
बेवफाई करो तो रोते हैं, वफा करो तो रुलाते हैं

Duniya ka bhi ajeeb dastoor hai "Faraz",
Bewafayi karo to rote hain,Wafa karo to rulate hain

*****
113

बडा नाज़ था उनको अपने परदे पे "फराज़"
कल रात वो ख्वाब में सर-ऐ-आम चले आये

Bada naaz tha unko apne parde pe "Faraz"
Kal raat wo khawab me Sar-E-Aam chale aaye

*****
114

शिद्दत-ए-दरद से शर्मिंदा नहीं मेरी वफा "फराज़"
दोस्त गहरे हैं तो फिर जख्म भी गहरे होंगे

Shiddat-E-Dard se sharminda nahi meri wafa "Faraz",
Dost gehrey hain to phir zakham bhi gehre honge

*****
115

अजब चराग हूँ दिन रात जल रहा हूँ "फराज़",
मैं थक गया हूँ हवा से कहो बुझाये मुझे

Ajab charag hun din raat jal raha hun "Faraz"
Mai thakk gaya hun hawa se kaho bujhaye mujhe

*****
116

समंदर में ले जा कर फरेब मत देना "फराज़"
तू कहे तो किनारे पे डूब जाऊं मैं

Samandar me le jaa kar fareb mat dena "Faraz",
Tu kahe to kinaare pe doob jaon main

*****
117

लाख ये चाहा के उसको भूल जाऊं "फराज़"
हौंसले अपनी जगह है, बेबसी अपनी जगह

Laakh ye chaaha ke usko bhool jaaun "Faraz"
Huaslein apni jagah hai, bebasi apni jagah

*****
118

तुम मुझे रूह में बसा लो "फराज़",
दिल-ओ-जान के रिशते तो अकसर टूट जाया करते हैं

Tum mujhe Rooh me basa lo "Faraz"
Dil-O-Jaan ke rishte to aksar toot jaya karte hain

*****
119

इस अजनबी शहर में ये पत्थर कहां से आया "फराज़"
लोगों की इस भीड में कोई अपना ज़रूर है

Is ajnabi sehar me ye patthar kahan se aaya "Faraz"
Logon ki is bheed me koi apna zaroor hai

*****
120

हज़ूम-ए-गम मेरी फितरत बदल नहीं सकती "फराज़",
मैं क्या करूं मुझे आदत है मुसकुराने की

वो ज़हर देता तो दुनीया की नज़रों में आ जाता "फराज़"
सो उसने यूँ किया के वक़्त पे दवा न दी

Wo Zehar deta to duniya ki nazaron me aa jata "Faraz"
So usne yun kiya ke waqt pe dwa na di


*****
122

मेरे दोस्तों की पहचान इतनी मुशिकल नहीं "फराज"
वो हँसना भूल जाते हैं मुझे रोता देखकर

Mere doston ki pehchaan itni musqil nahi "Faraz"
Wo hasna bhool jate hain, Mujhe rote dekh kar

*****
123

ये मासूमियत का कौन सा अंदाज है "फराज़"
पर काट के कहने लगे, अब तुम आज़ाद हो

Ye masoomiyat ka kaun sa andaaz hai "Faraz"
Parr kaat ke kehne lage, Ab tum aazaad ho

*****
124

हमने चाहा था इक ऐसे शख्स को "फराज"
जो आइने से भी नाजुक था, मगर था पत्थर का

Humne chaha tha ek aise shaksh ko "Faraz"
Jo aaine se bhi naazuk tha, Magar tha patthar ka

*****
125

मैं बचपन में ही रहता तो अच्छा था "फराज़"
हज़ारों हसरतें बरबाद की मैंने जवान होकर

Mai bachpan me hi rehta to accha tha "Faraz"
Hazaaron hasratein barbaad ki maine jawan hokar

*****
126

मुझे अपने किरदार पे इतना तो यकीन है "फराज़"
कोई मुझे छोड तो सकता है, मगर भुला नहीं सकता

Mujhe apne Qirdaar pe itna to yaqeen hai "Faraz"
Koi mujhe chorr to sakta hai, Magar bhula nahi sakta

*****
127

मिली सज़ा जो मुझे वो किसी खता पे नहीं "फराज़"
मुझ पे जुर्म साबित हुआ जो वफा का था

Mile sza jo mujhe wo kisi khata pe nahi "Faraz"
Mujh pe jurm saabit hua jo wafa ka tha

*****
128

अहसास के अंदाज बदल जाते हैं "फराज़"
वरना आँचल भी उसी धागे से बनता है और कफन भी

Ehsaas ke andaaz badal jaate hain "Faraz"
Warna aanchal bhi usi dhaage se banta hai aur Kafan bhi

*****
129

वो जिसके लिए हमने सारी हदें तोड दी "फराज़"
आज उसने कह दिया अपनी हद में रहा करो

Wo jiske liye humne saari hadein todd di "Faraz"
Aaj usne keh diya apni hadd me raha karo

*****
130

वैसे तो ठीक रहूँगा मैं उस से बिछड के "फराज़"
बस दिल की सोचता हूँ, धडकना छोड न दे

चढते सूरज के पुजारी तो लाखों हैं 'फ़राज़'
डूबते वक़्त हमने सूरज को भी तन्हा देखा

Chadhte Sooraj ke pujari to laakhon hai Faraz
Doobte waqt humne sooraj ko bhi tanha dekha

*****
132

ज़िन्दगी तो अपने कदमो पे चलती है 'फ़राज़'
औरों के सहारे तो जनाज़े उठा करते हैं

Zindgi to apne kadmo pe chalti hai Faraz
Auron ke sahaare to zanaaze utha karte hain

*****
133

मुझ से हर बार नज़रें चुरा लेता है वो 'फ़राज़',
मैंने कागज़ पर भी बना के देखी हैं आँखें उसकी

Mujh se har baar nazarein chura leta hai wo Faraz
Maine kaagaz par bhi bana ke dekhi hain aankhein uski

*****
134

सौ बार मरना चाहा निगाहों में डूब कर 'फ़राज़'
वो निगाह झुका लेते हैं हमें मरने नहीं देते

Sau baar marna chaaha nigaahon mein doob kar Faraz
Wo nigaah jhuka lete hain humein marne nahin dete

*****
135

दिल के रिश्तों कि नज़ाक़त वो क्या जाने 'फ़राज़'
नर्म लफ़्ज़ों से भी लग जाती हैं चोटें अक्सर

Dil ki rishton ki najaakat wo kya jaane Faraz
Narm lafzon se bhi lag jaati hain chote aksar

*****
136

कौन परेशां होता है तेरे ग़म से फ़राज़
वो अपनी ही किसी बात पे रोया होगा

Kaun pareshan hota hai tere gham se Faraz
Wo apni hi kisi baat pe roya hoga

*****
137

शिद्दते दर्द से शर्मिंदा नहीं मेरी वफ़ा फ़राज़,
दोस्त गहरे हैं तो फिर ज़ख्म भी गहरे होंगे

Shiddate dard se sharminda nahin meri wafa Faraz
Dost gehare hain to phir jakhm bhi gehare honge

*****
138

इतना तसलसुल तो मेरी साँसों में भी नहीं 'फ़राज़'
जिस रवानी से वो शख्स मुझे याद आता है

तसलसुल = क्रम, सिलसिला

Itna tasalsul to meri saanson mein bhi nahin Faraz
Jis rawaani se wo shakhs mujhe yaad aata hai

*****
139

मुझ से हर बार नज़रें चुरा लेता है वो 'फ़राज़'
मैंने कागज़ पर भी बना के देखी हैं आँखें उसकी

Mujh se har baar nazarein chura leta hai wo Faraz
Maine kaagaz par bhi bana ke dekhi hain aankhein uski

*****
140

तेरी तलब में जला डाले आशियाने तक
कहाँ रहूँ मैं तेरे दिल में घर बनाने तक

141

कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जानाँ
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते

(हिज्र = बिछोह, जुदाई)

Kitna aasaan tha tere hizra mein marna jaana
Phir bhi ik umar lagi jaan se jaate jaate

*****
142

झेले हैं जो दुःख तूने 'फ़राज़' अपनी जगह हैं
पर तुम पे जो गुज़री है वो औरों से कम है

Jhele hain jo dukh tune 'Faraz' apni jagah hain
Par tum pe jo gujari hai wo auron se kam hai

*****
143

घर से निकले थे कि दुनिया ने पुकारा था 'फ़राज़'
अब जो फुर्सत मिले दुनिया से तो घर जाएँ कहीं

144

उंगलियाँ आज तक इसी सोच में गुम हैं "फ़राज़"
उसने कैसे नए हाथ को थामा होगा

Ungaliyaan aaj tak isi soch mein gum hai 'Faraz'
Usne kaise naye haath ko thaama hoga

*****
145

जब भी दिल खोल के रोए होंगे, लोग आराम से सोए होंगे
वो सफ़ीने जिन्हें तूफ़ाँ न मिले, नाख़ुदाओं ने डुबोए होंगे

(सफ़ीना = किश्ती, नाव ;  नाख़ुदा = मल्लाह, नाविक)

Jab bhi dil khol ke roye honge, log aaram se soye honge
Wo safeene jinhein toofaan na mile, nakhudaaon ne dubooye honge

*****
146

तुम तक़ल्लुफ़ को भी इख़लास समझते हो 'फ़राज़'
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला

(तक़ल्लुफ़ = शिष्टाचार;  इख़लास = दोस्ती, मित्रता)

Tum taqalluf ko bhi ikhlaas samjhte ho 'Faraz'
Dost hota nahin har haath milaane waala

*****
147

जी में जो आती है कर गुज़रो कहीं ऐसा न हो
कल पशेमाँ हों कि क्यों दिल का कहा माना नहीं

(पशेमाँ = लज्जित, शर्मिंदा)

Jee mein jo aati hai kar gujaron kahin aisa na ho
Kal pasheman hon ki kyon dil ka kaha maana nahin

*****
148

वो ज़िन्दगी हो कि दुनिया 'फ़राज़' क्या कीजे
कि जिससे इश्क़ करो बेवफ़ा निकलती है

Wo zindagi ho ki duniya Faraz kya kije
Ki jisse ishq karo bewafa nikalti hai

*****
149

ज़िन्दगी पर इससे बढ़कर तंज़ क्या होगा 'फ़राज़',
उसका ये कहना कि तू शायर है, दीवाना नहीं।

(तंज़ = ताना, व्यंग्य)

Zindagi npar is se badhkar tanz kya hoga Faraz
Uska ye kehana ki tu shaayar hai, deewana nahin

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150

बहुत अजीब है ये बंदिशें मुहब्बत की 'फ़राज़'
न उसने क़ैद में रखा न हम फरार हुए


रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ

रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

पहले से मरासिम* न सही, फिर भी कभी तो
रस्मों-रहे* दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से ख़फ़ा है, तो ज़माने के लिए आ

कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मोहब्बत* का भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ

इक उम्र से हूँ लज़्ज़त-ए-गिरिया* से भी महरूम*
ऐ राहत-ए-जाँ* मुझको रुलाने के लिए आ

अब तक दिल-ए-ख़ुशफ़हम* को तुझ से हैं उम्मीदें
ये आखिरी शमएँ भी बुझाने के लिए आ

माना की मुहब्बत का छिपाना है मुहब्बत
चुपके से किसी रोज़ जताने के लिए आ

जैसे तुझे आते हैं न आने के बहाने
ऐसे ही किसी रोज़ न जाने के लिए आ

* मरासिम - प्रेम-व्यहवार
* रस्मों-रहे - सांसारिक शिष्टाचार
* पिन्दार-ए-मोहब्बत - प्रेम का गर्व
* लज़्ज़त-ए-गिरिया - रोने का स्वाद
* महरूम - वंचित
* राहत-ए-जाँ - प्राणाधार
* दिल-ए-ख़ुशफ़हम - किसी की ओर से अच्छा विचार रखने वाला मन

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें

ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों* में मिलें

तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों* में मिलें

ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नशा बड़ता है शरबें जो शराबों में मिलें

आज हम दार* पे खेंचे गये जिन बातों पर
क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों* में मिलें
अब न वो मैं हूँ न तु है न वो माज़ी है "फ़राज़"
जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें

* खराबों - खंडहर
* हिजाबों - पर्दों
* दार - फांसी घर
* निसाबों - पाठ्यक्रम, ग्रन्थ
* माज़ी - अतीत काल
* सराबों - मृगतृष्णा

इस से पहले कि बेवफा हो जाएँ

इस से पहले कि बेवफा हो जाएँ
क्यूँ न ए दोस्त हम जुदा हो जाएँ

तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ

हम भी मजबूरियों का उज़्र* करें
फिर कहीं और मुब्तिला हो जाएँ

अब के गर तू मिले तो हम तुझसे
ऐसे लिपटें तेरी क़बा* हो जाएँ

बंदगी हमने छोड़ दी फ़राज़
क्या करें लोग जब खुदा हो जाएँ

* उज्र  =  दलील, माफ़ी
* मुब्तिला = शामिल, इन्वोल्व
* क़बा  =  ड्रेस

फ़राज़ अब कोई सौदा कोई जूनून भी नहीं

फ़राज़ अब कोई सौदा कोई जूनून भी नहीं
मगर करार से दिन कट रहे होँ यूँ भी नहीं

लब-ओ-दहन* भी मिला गुफ्तगू* का फन भी
मगर जो दिल पे गुज़रती है कह सकूं भी नहीं

मेरी जुबां की लुकनत* से बदगुमान* न हो
जो तू कहे तो उमर भर मिलूँ भी नहीं

फ़राज़ जैसे कोई दिया तुर्बत-ए-हवा* चाहे है
तू पास आये तो मुमकिन है मैं रहूँ भी नहीं
* लब-ओ-दहन  =  होंठ और मुंह
* गुफ्तगू  =  बातचीत
* लुकनत  =  हकलाअट            
*बदगुमान = शक्की, संदेह करने वाला
* तुर्बत  =  कब्र

तुम भी ख़फ़ा हो लोग भी बेरहम हैं दोस्तो

तुम भी ख़फ़ा हो लोग भी बेरहम हैं दोस्तो
अब हो चला यक़ीं के बुरे हम हैं दोस्तो

किस को हमारे हाल से निस्बत है क्या करें
आँखें तो दुश्मनों की भी पुरनम हैं दोस्तो

अपने सिवा हमारे न होने का ग़म किसे
अपनी तलाश में तो हम ही हम हैं दोस्तो

कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा-बुझा
कुछ शहर के चिराग़ भी मद्धम हैं दोस्तो

इस शहर-ए-आरज़ू से भी बाहर निकल चलो
अब दिल की रौनक़ें भी कोई दम हैं दोस्तो

सब कुछ सही "फ़राज़" पर इतना ज़रूर है
दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम हैं दोस्तो


तड़प उठूँ भी तो ज़ालिम तेरी दुहाई न दूँ

तड़प उठूँ भी तो ज़ालिम तेरी दुहाई न दूँ
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी तुझे दिखाई न दूँ

तेरे बदन में धड़कने लगा हूँ दिल की तरह
ये और बात के अब भी तुझे सुनाई न दूँ

ख़ुद अपने आपको परखा तो ये नदामत है
के अब कभी उसे इल्ज़ाम-ए-बेवफ़ाई न दूँ

मेरी बका ही मेरी ख़्वाहिश-ए-गुनाह में है
मैं ज़िन्दगी को कभी ज़हर-ए-पारसाई* न दूँ

जो ठन गई है तो यारी पे हर्फ़* क्यूँ आए
हरीफ़-ए-जाँ* को कभी तान-ए-आशनाई* न दूँ

ये हौसला भी बड़ी बात है शिकस्त के बाद
की दुसरो को तो इलज़ाम-ए-ना-रसाई न दूँ

मुझे भी ढूँढ कभी मह्व-ए-आईनादारी*
मैं तेरा अक़्स हूँ लेकिन तुझे दिखाई न दूँ

'फ़राज़' दौलत-ए-दिल है मता-ए-महरूमी*
मैं जाम-ए-जम के एवज़ कासा-ए-गदाई* न दूँ

मह्व-ए-आईनादारी  =  आईने को पकड़ने में व्यस्त
बका  =  अमरता, स्थायित्व
ज़हर-ए-पारसाई  =  भक्ति के तहत
हर्फ़  =  कलंक
हरीफ़-ए-जाँ   =  जीवन की प्रतिद्वंद्वी
तान-ए-आशनाई  =  परिचित का ताना
मता-ए-महरूमी  =  अभाव की वस्तु
कासा-ए-गदाई  =  भिखारी का कटोरा

अब वो मंजर, ना वो चेहरे ही नजर आते हैं

अब वो मंजर, ना वो चेहरे ही नजर आते हैं
मुझको मालूम ना था ख्वाब भी मर जाते हैं

जाने किस हाल में हम हैं कि हमें देख के सब
एक पल के लिये रुकते हैं गुजर जाते हैं

साकिया तूने तो मयखाने का ये हाल किया
रिन्द* अब मोहतसिबे-शहर* के गुण गाते हैं

ताना-ए-नशा ना दो सबको कि कुछ सोख्त-जाँ*
शिद्दते-तिश्नालबी* से भी बहक जाते हैं

जैसे तजदीदे-तअल्लुक* की भी रुत हो कोई
ज़ख्म भरते हैं तो गम-ख्वार* भी आ जाते हैं

एहतियात अहले-मोहब्बत कि इसी शहर में लोग
गुल-बदस्त आते हैं और पा-ब-रसन जाते हैं

रिन्द  = शराबी
मोहतसिबे-शहर  =  धर्माधिकारी
सोख्त-जाँ  =  दिल जले
शिद्दते-तिश्नालबी  =  प्यास की अधिकता
तजदीदे-तअल्लुक  =  रिश्तों का नवीनीकरण
गम-ख्वार  =  गम देने वाले

आज फिर दिल ने कहा आओ भुला दें यादें

आज फिर दिल ने कहा आओ भुला दें यादें
ज़िंदगी बीत गई और वही यादें-यादें

जिस तरह आज ही बिछड़े हों बिछड़ने वाले
जैसे इक उम्र के दुःख याद दिला दें यादें

काश मुमकिन हो कि इक काग़ज़ी कश्ती की तरह
ख़ुदफरामोशी के दरिया में बहा दें यादें

वो भी रुत आए कि ऐ ज़ूद-फ़रामोश* मेरे
फूल पत्ते तेरी यादों में बिछा दें यादें

जैसे चाहत भी कोई जुर्म हो और जुर्म भी वो
जिसकी पादाश* में ताउम्र सज़ा दें यादें

भूल जाना भी तो इक तरह की नेअमत है ‘फ़राज़’
वरना इंसान को पागल न बना दें यादें

ज़ूद-फ़रामोश  =  जल्दी भूलने वाला
पादाश  =  जुर्म की सजा

बदन में आग सी चेहरा गुलाब जैसा है

बदन में आग सी चेहरा गुलाब जैसा है
के ज़हर-ए-गम का नशा भी शराब जैसा है

कहाँ वो कुर्ब* के अब तो ये हाल है जैसे
तेरे फ़िराक* का आलम भी ख्वाब जैसा है

मगर कभी कोई देखे कोई पढ़े तो सही
दिल आइना है तो चेहरा किताब जैसा है

वो सामने है मगर तिशनगी* नहीं जाती
ये क्या सितम है के दरिया शराब* जैसा है

'फ़राज़' संग-ए-मलामत* से ज़ख्म ज़ख्म सही
हमें अज़ीज़ है खाना खराब जैसा

कुर्ब  =  नज़दीकी
फ़िराक  =  वियोग, बिछोह
तिशनगी  =  इच्छा, प्यास
शराब  =  भ्रम, मृगतृष्णा
संग-ए-मलामत  =  निंदा

अजब जूनून-ए-मुसाफ़त में घर से निकला था

अजब जूनून-ए-मुसाफ़त* में घर से निकला था
ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था

ये कौन फिर से उन्हीं रास्तों में छोड़ गया
अभी अभी तो अज़ाब-ए-सफ़र* से निकला था

ये तीर दिल में मगर बे-सबब* नहीं उतरा
कोई तो हर्फ़* लब-ए-चारागर* से निकला था

मैं रात टूट के रोया तो चैन से सोया
कि दिल का दर्द मेरे चश्म-ए-तर* से निकला था

वो कैसे अब जिसे मजनू पुकारते हैं ‘फ़राज़’
मेरी तरह कोई दिवाना-गर से निकला था

जूनून-ए-मुसाफ़त  =  सफर का जूनून
अज़ाब-ए-सफ़र  =  यात्रा की सजा,  सफर की पीड़ा
बे-सबब  =  बिना किसी कारण, अकारण
हर्फ़  =  शब्द
लब-ए-चारागर  =  इलाज़ करने वाले के होंठ
चश्म-ए-तर  =  गीली आँखे, आंसुओं से भरी आँखे

अच्छा था अगर ज़ख्म न भरते कोई दिन और

अच्छा था अगर ज़ख्म न भरते कोई दिन और
उस कू-ए-मलामत* में गुजरते कोई दिन और

रातों के तेरी यादों के खुर्शीद* उभरते
आँखों में सितारे से उभरते कोई दिन और

हमने तुझे देखा तो किसी और को ना देखा
ए काश तेरे बाद गुजरते कोई दिन और

राहत थी बहुत रंज* में हम गमतलबों* को
तुम और बिगड़ते तो संवरते कोई दिन और

गो तर्के-तअल्लुक* था मगर जाँ पे बनी थी
मरते जो तुझे याद ना करते कोई दिन और

उस शहरे-तमन्ना से 'फ़राज़' आये ही क्यों थे
ये हाल अगर था तो ठहरते कोई दिन और

कू-ए-मलामत - ऐसी गली, जहाँ व्यंग्य किया जाता हो
खुर्शीद - सूर्य
रंज - तकलीफ़
गमतलब- दुख पसन्द करने वाले
तर्के-तअल्लुक - रिश्ता टूटना( यहाँ संवाद हीनता से मतलब है)

सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते

सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते
वरना इतने तो मरासिम* थे के आते जाते

शिकवा-ए-ज़ुल्मत-ए-शब्* से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शमां जलाते जाते

कितना आसां था तेरे हिज्र* में मरना जाना
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते

जश्न-ए-मकतल* ही न बरपा हुआ वरना हम भी
पाब-जूलां* ही सही नाचते गाते जाते

उसकी वो जाने उसे पास-ए-वफ़ा* था के न था
तुम फ़राज़ अपनी तरफ से तो निभाते जाते

मरासिम = संबंध
शिकवा-ए-ज़ुल्मत-ए-शब् = अँधेरी रात की शिकायत
हिज्र = जुदाई
मकतल = कत्लखाना
पाब-जूलां = जंजीर से बंधे हुए पैर
पास -ए -वफ़ा = प्यार के लिए सम्मान

रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं

रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं
दर से उठते हैं तो दीवार से लग जाते हैं

इश्क आगाज़* में हलकी सी खलिश* रखता है
बाद में सैकड़ों आज़ार* से लग जाते हैं

पहले पहल हवस इक-आध दुकां खोलती है
फिर तो बाज़ार के बाज़ार से लग जाते है

बेबसी भी कभी कुर्बत* का सबब* बनती है
रो न पायें तो गले यार के लग जाते हैं

कतरनें ग़म की जो गलियों में उडी फिरती है
घर में ले आओ तो अम्बार से लग जाते है

दाग़ दामन के हों, दिल के हों या चेहरे के फ़राज़
कुछ निशाँ उम्र की रफ़्तार से लग जाते हैं

आगाज़  =  शुरुआत
खलिश  =  दर्द
आज़ार  =  दर्द
कुर्बत  =  प्यार
सबब  =  कारण

बुझी नज़र तो करिश्मे भी रोज़ो शब के गये

बुझी नज़र तो करिश्मे भी रोज़ो शब* के गये
के अब तलक नही पलटे हैं लोग कब के गये

करेगा कौन तेरी बेवफ़ाइयों का गिला*
यही है रस्मे ज़माना तो हम भी अब के गये

मगर किसी ने हमे हमसफ़र नही जाना
ये और बात के हम साथ साथ सब के गये

अब आये हो तो यहाँ क्या है देखने के लिये
ये शहर कब से है वीरां वो लोग कब के गये

गिरफ़्ता दिल* थे मगर हौसला नही हारा
गिरफ़्ता दिल हैं मगर हौसले भी अब के गये

तुम अपनी शम्ऐ-तमन्ना को रो रहे हो "फ़राज़"
इन आँधियों मे तो प्यारे चिराग सब के गये

रोज़ो-शब  =  क़यामत और हश्र तक दिन-रात
गिला  =  शिकायत
गिरफ़्ता दिल  =  उदास दिल

अगरचे ज़ोर हवाओं नें डाल रखा है

अगरचे* ज़ोर हवाओं नें डाल रखा है
मगर चराग ने लौ को संभाल रखा है

भले दिनों का भरोसा ही क्या रहे न रहे
सो मैंने रिश्ता-ए-गम को बहाल रखा है

मोहब्बत में तो मिलना है या उजड़ जाना
मिज़ाज-ए-इश्क में कब येत्दाल* रखा है

हवा में नशा ही नशा फ़ज़ा में रंग ही रंग
यह किसने पैराहन* अपना उछाल रखा है

भरी बहार में इक शाख पे खिला है गुलाब
के जैसे तुने हथेली पे गाल रखा है

हम ऐसे सादादिलों* को, वो दोस्त हो की खुदा
सभी ने वादा-ए-फर्दा* पे टाल रखा है

"फ़राज़" इश्क की दुनिया तो खूबसूरत थी
ये किसने फितना-ए-हिज्र-ओ-विसाल* रखा है

अगरचे  =  हालांकि
येत्दाल  =  मॉडरेशन, संयम
पैराहन  =  वस्त्र
[सादादिलों =  सीधा-साधा
वादा-ए-फर्दा  =  कल का वादा
फितना-ए-हिज्र-ओ-विसाल  =  मिलने और बिछड़ने का झगड़ा

जब तेरा दर्द मेरे साथ वफ़ा करता है

जब तेरा दर्द मेरे साथ वफ़ा करता है
एक समंदर मेरी आँखों से बहा करता है

उस की बातें मुझे खुशबू की तरह लगती हैं
फूल जैसे कोई सहरा* में खिला करता है

मेरे दोस्त की पहचान यही काफी है
वो हर एक शख़्स  को दानिस्ता* ख़फ़ा करता है

है और तो कोई सबब* उस की मुहब्बत का नहीं
बात इतनी है के वो मुझ से जफ़ा* करता है

जब खिज़ा* आई तो लौट आयेगा वो भी 'फ़राज़'
वो बहारों में ज़रा कम मिला करता है

सहरा  =  रेगिस्तान
दानिस्ता = जान-बूझकर
सबब  =  कारण
जफ़ा  =  अन्याय, अत्याचार
खिजा  =  पतझड़

जो भी दुख याद न था याद आया

जो भी दुख याद न था याद आया
आज क्या जानिए क्या याद आया

याद आया था बिछड़ना तेरा
फिर नहीं याद कि क्या याद आया

हाथ उठाए था कि दिल बैठ गया
जाने क्या वक़्त-ए-दुआ याद आया

जिस तरह धुंध में लिपटे हुए फूल
इक इक नक़्श तेरा याद आया

ये मोहब्बत भी है क्या रोग ‘फ़राज़’
जिसको भूले वो सदा याद आया

ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे

ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे

हमसफ़र चाहिये हूज़ूम नहीं
इक मुसाफ़िर भी काफ़िला है मुझे

तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे

लबकुशा* हूं तो इस यकीन के साथ
कत्ल होने का हौसला है मुझे

दिल धडकता नहीं सुलगता है
वो जो ख्वाहिश थी, आबला* है मुझे

कौन जाने कि चाहतों में फ़राज़
क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे

लबकुशां = बोलने वाला
आबला = फफोला, छाला

क्यूँ तबीअत कहीं ठहरती नहीं

क्यूँ तबीअत कहीं ठहरती नहीं
दोस्ती तो उदास करती नहीं

हम हमेशा के सैर-चश्म सही
तुझ को देखें तो आँख भरती नहीं

शब-ए-हिज्राँ* भी रोज़-ए-बद* की तरह
कट तो जाती है पर गुज़रती नहीं

ये मोहब्बत है, सुन, ज़माने, सुन!
इतनी आसानियों से मरती नहीं

जिस तरह तुम गुजारते हो फ़राज़
जिंदगी उस तरह गुज़रती नहीं

शब-ए-हिज्राँ =जुदाई की रात
रोज़-ए-बद = बुरे दिनों

तुझ पर भी न हो गुमान मेरा

तुझ पर भी न हो गुमान मेरा
इतना भी कहा न मान मेरा

मैं दुखते हुये दिलों का ईशा
और जिस्म लहुलुहान मेरा

कुछ रौशनी शहर को मिली तो
जलता है जले मकान मेरा

ये जात ये कायनात क्या है
तू जान मेरी जहान मेरा

जो कुछ भी हुआ यही बहुत है
तुझको भी रहा है ध्यान मेरा

कुछ न किसी से बोलेंगे

कुछ न किसी से बोलेंगे
तन्हाई में रो लेंगे

हम बेरहबरों का क्या
साथ किसी के हो लेंगे

ख़ुद तो हुए रुसवा लेकिन
तेरे भेद न खोलेंगे

जीवन ज़हर भरा साग़र
कब तक अमृत घोलेंगे

नींद तो क्या आयेगी "फ़राज़"
मौत आई तो सो लेंगे

हर तमाशाई फ़क़त साहिल से मंज़र देखता

हर तमाशाई फ़क़त* साहिल* से मंज़र देखता
कौन दरिया को उलटता कौन गौहर* देखता

वो तो दुनिया को मेरी दीवानगी ख़ुश आ गई
तेरे हाथों में वग़रना पहला पत्थर देखता

आँख में आँसू जड़े थे पर सदा तुझ को न दी
इस तवक़्क़ो* पर कि शायद तू पलट कर देखता

मेरी क़िस्मत की लकीरें मेरे हाथों में न थीं
तेरे माथे पर कोई मेरा मुक़द्दर देखता

ज़िन्दगी फैली हुई थी शाम-ए-हिज्राँ* की तरह
किस को इतना हौसला था कौन जी कर देखता

डूबने वाला था और साहिल पे चेहरों का हुजूम
पल की मोहलत थी मैं किसको आँख भर कर देखता

तू भी दिल को इक लहू की बूँद समझा है 'फ़राज़'
आँख गर होती तो क़तरे में समन्दर देखता

फकत -केवल
साहिल = किनारा
गौहर = हीरे, जवाहरात, रत्न
तवक़्क़ो = आशा, उम्मीद
शाम-ए-हिज्राँ = विरह की शाम

कभी मोम बन के पिघल गया कभी गिरते गिरते सँभल गया

कभी मोम बन के पिघल गया कभी गिरते गिरते सँभल गया
वो बन के लम्हा गुरेज़ का मेरे पास से निकल गया

उसे रोकता भी तो किस तरह के वो शख़्स इतना अजीब था
कभी तड़प उठा मेरी आह से कभी अश्क़ से न पिघल सका

सरे-राह मिला वो अगर कभी तो नज़र चुरा के गुज़र गया
वो उतर गया मेरी आँख से मेरे दिल से क्यूँ न उतर सका

वो चला गया जहाँ छोड़ के मैं वहाँ से फिर न पलट सका
वो सँभल गया था 'फ़राज़' मगर मैं बिखर के न सिमट सका

आँख से दूर न हो दिल से उतर जायेगा
आँख से दूर न हो दिल से उतर जायेगा
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जायेगा

इतना मानूस* न हो ख़िल्वत-ए-ग़म* से अपनी
तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जायेगा

तुम सर-ए-राह-ए-वफ़ा* देखते रह जाओगे
और वो बाम-ए-रफ़ाक़त* से उतर जायेगा

ज़िन्दगी तेरी अता* है तो ये जानेवाला
तेरी बख़्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जायेगा

डूबते डूबते कश्ती तो ओछाला दे दूँ
मैं नहीं कोई तो साहिल* पे उतर जायेगा

ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का "फ़राज़"
ज़ालिम अब के भी न रोयेगा तो मर जायेगा

मानूस  =  आत्मीय
ख़िल्वत-ए-ग़म  =  अकेलेपन का ग़म
सर-ए-राह-ए-वफ़ा  =  प्यार का रास्ता
बाम-ए-रफ़ाक़त  =  दोस्ती/ निष्ठा की छत, प्यार की जवाबदारी
अता  =  दान
साहिल  =  किनारा

ख़्वाब मरते नहीं

ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब दिल हैं न आँखें न साँसें के जो
रेज़ा-रेज़ा* हुए तो बिखर जायेंगे
जिस्म की मौत से ये भी मर जायेंगे

ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब तो रौशनी हैं, नवा* हैं, हवा हैं
जो काले पहाड़ों से रुकते नहीं
ज़ुल्म के दोज़ख़ों* से भी फुँकते नहीं
रौशनी और नवा और हवा के अलम
मक़्तलों* में पहुँच कर भी झुकते नहीं

ख़्वाब तो हर्फ़* हैं
ख़्वाब तो नूर हैं
ख़्वाब सुकरात हैं
ख़्वाब मंसूर हैं

रेज़ा-रेज़ा  =  टुकड़े टुकड़े
नवा  =  गीत, आवाज़, शब्द
अलम  =  पताकाएँ
दोजख  =  नर्क
मक़्तल  =  वधस्थल
हर्फ़  =  अक्षर, लिखावट

करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे

करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे

वो ख़ार-ख़ार* है शाख़-ए-गुलाब की मानिन्द*
मैं ज़ख़्म-ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे

ये लोग तज़करे* करते हैं अपने लोगों से
मैं कैसे बात करूँ और कहाँ से लाऊँ उसे

मगर वो ज़ूदफ़रामोश* ज़ूदरंज* भी है
के रूठ जाये अगर याद कुछ दिलाऊँ उसे

वही जो दौलत-ए-दिल है वही जो राहत-ए-जाँ*
तुम्हारी बात पे ऐ नासिहो गँवाऊँ उसे

जो हमसफ़र सरे मंज़िल बिछड़ रहा है 'फ़राज़',
अजब नहीं कि अगर याद भी न आऊं उसे

ख़ार=कँटीला
मानिन्द=भाँति
तज़किरा = चर्चा, ज़िक्र
ज़ूद = शीघ्र, जल्दी
ज़ूदफ़रामोश = जल्दी भूलने वाला
ज़ूदरंज = जल्दी बुरा मानने वाला, तुनक मिजाज़
राहत-ए-जाँ  =  मन को प्रसन्न करने वाली
नासिह=उपदेशक


 सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं

सुना है रब्त है उसको ख़राब-हालों से
सो अपने आप को बर्बाद कर के देखते हैं

(रब्त = सम्बन्ध, मेल)

सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं

(गाहक = खरीददार, चश्म-ए-नाज़ = गर्वीली आँखें)

सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोइज़े अपने हुनर के देखते हैं

(शगफ़ = जूनून, धुन; मोइज़े = जादू)

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं

सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फलक से उतर के देखते हैं

(बाम-ए-फलक = आसमान की छत)

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनूं ठहर के देखते हैं

सुना है रात से बढ़ कर है काकुलें उसकी
सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं

(काकुलें = जुल्फें)

सुना है हश्र है उसकी ग़ज़ाल सी आँखें
सुना है उसको हिरन दश्तभर के देखते हैं

(हश्र = क़यामत; ग़ज़ाल = हिरन; दश्तभर = पूरा जंगल)

सुना है उस की स्याह चश्मगी क़यामत है
सो उसको सुरमाफ़रोश आँख भर के देखते हैं

(स्याह चश्मगी = काली आँखें; सुरमाफ़रोश = काजल बेचने वाले)

सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पे इलज़ाम धर के देखते हैं

सुना है आइना तमसाल है ज़बीं उसकी
जो सादादिल हैं उसे बन संवर के देखते हैं

(तमसाल = मिसाल, उपमा; ज़बीं = माथा; सादादिल = साफ़ दिल वाले)

सुना है उसके बदन की तराश ऐसी है
की फूल अपनी कबायें क़तर के देखते हैं

(कबायें = कपड़े)

बस इक निगाह में लुटता है काफ़िला दिल का
सो रह-रवां-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं

(रह-रवां-ए-तमन्ना = राहगीरों की तमन्ना)

सुना है उसके सबिस्तां से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीं उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं

(सबिस्तां = शयनकक्ष; मुत्तसिल = पास, बगल में; बहिश्त = स्वर्ग; मकीं = किरायेदार)

किसे नसीब के बे-पैरहन उसे देखे
कभी कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं

(बे-पैरहन = बिना कपड़ो के; दर-ओ-दीवार = दरवाज़े और खिड़कियाँ)

रुकें तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं
चलें तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं

(गर्दिशें = विपत्ति; तवाफ़ = प्रदक्षिणा)
कहानियाँ ही सही, सब मुबालगे ही सही
अगर ये ख़्वाब है, ताबीर कर के देखते हैं

(मुबालगे = अत्त्युक्ति, बहुत बढ़ा चढ़ा कर कही हुई बात;  ताबीर = परिणाम, फल)

अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जाएँ
'फ़राज़' आओ सितारे सफ़र के देखते हैं

तू पास भी हो तो दिल बेक़रार अपना है

तू पास भी हो तो दिल बेक़रार अपना है
कि हमको तेरा नहीं इन्तज़ार अपना है

मिले कोई भी तेरा ज़िक्र छेड़ देते हैं
कि जैसे सारा जहाँ राज़दार अपना है

वो दूर हो तो बजा तर्के-दोस्ती* का ख़याल
वो सामने हो तो कब इख़्तियार अपना है

ज़माने भर के दुखो को लगा लिया दिल से
इस आसरे पे कि एक ग़मगुसार* अपना है

बला से जाँ का ज़ियाँ* हो, इस एतमाद* की ख़ैर
वफ़ा करे न करे फिर भी यार अपना है

'फ़राज़' राहते-जाँ* भी वही है क्या कीजे
वह जिसके हाथ से सीना फ़िगार* अपना है


तर्के-दोस्ती  =  दोस्ती का त्याग
इख़्तियार  =  नियंत्रण
ग़मगुसार  =  हमदर्द
जाँ का ज़ियाँ  =  जान का नुकसान
एतमाद  =  भरोसा, विश्वास
राहते-जाँ  =  सुखदायी
फ़िगार =  घायल, ज़ख़्मी

फिर उसी रहगुज़र पर शायद

फिर उसी रहगुज़र* पर शायद
हम कभी मिल सकें मगर शायद

जान-पहचान से भी क्या होगा
फिर भी ऐ दोस्त गौर कर! शायद


मुंतज़िर* जिनके हम रहे उनको
मिल गए और हमसफ़र, शायद

अजनबियत की धुंध छट जाए
चमक उट्ठे तेरी नज़र शायद

ज़िन्दगी भर लहू रुलायेगी
यादे-याराने-बेख़बर शायद

जो भी बिछ्ड़े हैं कब मिले हैं 'फ़राज़'
फिर भी तू इंतज़ार कर शायद

 रहगुज़र  =  रास्ता
मुंतज़िर  =  प्रतीक्षारत

तुझसे मिलने को कभी हम जो मचल जाते हैं

तुझसे मिलने को कभी हम जो मचल जाते हैं
तो ख़्यालों में बहुत दूर निकल जाते हैं

गर वफ़ाओं में सदाक़त* भी हो और शिद्दत* भी
फिर तो एहसास से पत्थर भी पिघल जाते हैं

उसकी आँखों के नशे में हैं जब से डूबे
लड़-खड़ाते हैं क़दम और संभल जाते हैं

बेवफ़ाई का मुझे जब भी ख़याल आता है
अश्क़* रुख़सार* पर आँखों से निकल जाते हैं

प्यार में एक ही मौसम है बहारों का मौसम
लोग मौसम की तरह फिर कैसे बदल जाते हैं

सदाक़त  =  सच्चाई
शिद्दत  =  गंभीरता, तीव्रता, प्रबलता
अश्क़  =  आंसू
रुखसार  =  गाल

आशिकी में "मीर" जैसे ख्वाब मत देखा करो

आशिकी में "मीर" जैसे ख्वाब मत देखा करो
बावले हो जाओगे माहताब मत देखा करो

(बावले = पागल); (माहताब = चन्द्रमा)

जस्ता जस्ता पढ़ लिया करना मज़ामीन-ए-वफ़ा
पर किताब-ए-इश्क का हर बाब मत देखा करो

(जस्ता जस्ता = इधर उधर); (मज़ामीन-ए-वफ़ा = वफ़ा की सच्चाई); (बाब =  अध्याय, परिच्छेद)

इस तमाशे में उलट जाती हैं अक्सर कश्तियाँ
डूबने वालों को ज़ेर-ए-आब मत देखा करो

(ज़ेर-ए-आब = पानी के नीचे)

मैकदे में क्या तकल्लुफ मैकशी में क्या हिजाब
बज़्म-ए-साकी में अदब आदाब मत देखा करो

(हिजाब = पर्दा, ओट)

हमसे दरवेशों के घर आओ तो यारों की तरह
हर जगह कहकशां-ए-बर्फाब मत देखा करो

(दरवेश = साधू, संत), (कहकशां-ए-बर्फाब = बर्फ की आकाशगंगा)

मांगे तांगे की क़बायें देर तक रहती नहीं
यार लोगों के लक़ब अलकाब मत देखा करो

(क़बा = कपड़े); (लक़ब अलकाब = उपाधि, खिताब, पदवी)

तश्नगी में लब डुबो लेना भी काफी है 'फ़राज़'
जाम में सहबा है या ज़ेहराब मत देखा करो .....

(तश्नगी = प्यास); (सहबा = शराब); (ज़ेहराब = ज़हर भरा पानी)

उसको जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ

उसको जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ
अब क्या कहें ये क़िस्सा पुराना बहुत हुआ

ढलती न थी किसी भी जतन से शब-ए-फ़िराक़*
ए मर्ग-ए-नगाहाँ* तेरा आना बहुत हुआ

हम ख़ुल्द* से निकल तो गये हैं पर ऐ ख़ुदा
इतने से वाक़ये का फ़साना बहुत हुआ

अब हम हैं और सारे ज़माने की दुश्मनी
उससे ज़रा रब्त* बढ़ाना बहुत हुआ

अब क्यों न ज़िन्दगी पे मुहब्बत को वार दें
इस आशिक़ी में जान से जाना बहुत हुआ

अब तक तो दिल का दिल से तार्रुफ़* न हो सका
माना कि उससे मिलना मिलाना बहुत हुआ

क्या-क्या न हम ख़राब हुए हैं मगर ये दिल
ऐ याद-ए-यार तेरा ठिकाना बहुत हुआ

कहता था नासेहों* से मेरे मुंह न आइयो
फिर क्या था एक हु* का आना बहुत हुआ

लो फिर तेरे लबों पे उसी बेवफ़ा का ज़िक्र
अहद "फ़राज़" तुझसे कहा ना बहुत हुआ......

शब-ए-फ़िराक़  =  जुदाई की रात
मर्ग-ए-नगाहाँ  =  असमय मौत
ख़ुल्द  =  स्वर्ग
रब्त  =  सम्बन्ध, रिश्ता
तार्रुफ़  =  परिचय
नासेह  =  उपदेशक
हु  =  चाँद, बादल, कोहरा


कुर्बत भी नहीं दिल से उतर भी नहीं जाता

कुर्बत* भी नहीं दिल से उतर भी नहीं जाता
वो शख़्स कोई फ़ैसला कर भी नहीं जाता

आँखें हैं के खाली नहीं रहती हैं लहू से
और ज़ख्म-ए-जुदाई है के भर भी नहीं जाता

वो राहत-ए-जान* है इस दरबदरी में
ऐसा है के अब ध्यान उधर भी नहीं जाता

हम दोहरी अज़ीयत* के गिरफ़्तार मुसाफ़िर
पाऔं भी हैं शील शौक़-ए-सफ़र भी नहीं जाता

दिल को तेरी चाहत पर भरोसा भी बहुत है
और तुझसे बिछड़ जाने का डर भी नहीं जाता

पागल होते हो 'फ़राज़' उससे मिले क्या
इतनी सी ख़ुशी से कोई मर भी नहीं जाता

कुर्बत  =  मोहब्बत, प्यार
राहत-ए-जान  =  मन को प्रसन्न करने वाली
अज़ीयत  =  किसी को पहुंचाई जाने वाली पीड़ा, अत्याचार

दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभानेवाला

दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभानेवाला
वही अन्दाज़ है ज़ालिम का ज़मानेवाला

(जालिम  =  अत्याचारी )

अब उसे लोग समझते हैं गिरफ़्तार मेरा
सख़्त नादिम है मुझे दाम में लानेवाला

(नादिम  =  लज्जित : दाम  =  जाल, बंधन )

सुबह-दम छोड़ गया निक़हते-गुल की सूरत
रात को ग़ुंचा-ए-दिल में सिमट आने वाला

(निक़हते-गुल  =  गुलाब की ख़ुश्बू की तरह;  ग़ुंचा-ए-दिल  =  दिल की कली)

क्या कहें कितने मरासिम थे हमारे उससे
वो जो इक शख़्स है मुँह फेर के जानेवाला

(मरासिम  =   मेल-जोल)

तेरे होते हुए आ जाती थी सारी दुनिया
आज तन्हा हूँ तो कोई नहीं आनेवाला

मुंतज़िर किसका हूँ टूटी हुई दहलीज़ पे मैं
कौन आयेगा यहाँ कौन है आनेवाला

(मुंतज़िर  =  प्रतीक्षारत)

मैंने देखा है बहारों में चमन को जलते
है कोई ख़्वाब की ताबीर बतानेवाला

(बहारों  =  वसंत ऋतुओं;  ताबीर  =  स्वप्नफल)

क्या ख़बर थी जो मेरी जान में घुला है इतना
है वही मुझ को सर-ए-दार भी लाने वाला

सर-ए-दार  =  सूली तक

तुम तक़ल्लुफ़ को भी इख़लास समझते हो "फ़राज़"
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलानेवाला

(तक़ल्लुफ़  =  औपचारिकता;  इख़लास =  प्रेम)

जानाँ दिल का शहर, नगर अफ़सोस का है

जानाँ दिल का शहर, नगर अफ़सोस का है
तेरा मेरा सारा सफ़र अफ़सोस का है

किस चाहत से ज़हरे-तमन्ना माँगा था
और अब हाथों में साग़र अफ़सोस का है

इक दहलीज पे जाकर दिल ख़ुश होता था
अब तो शहर में हर इक दर अफ़सोस का है

हमने इश्क़ गुनाह से बरतर जाना था
और दिल पर पहला पत्थर अफ़सोस का है

देखो इस चाहत के पेड़ की शाख़ों पर
फूल उदासी का है समर* अफ़सोस का है

कोई पछतावा सा पछतावा है 'फ़राज़'
दुःख का नहीं अफ़सोस मगर अफ़सोस का है

बरतर  =  बढ़कर, अच्छा
समर  =  फल


हाथ उठाए हैं मगर लब पे दुआ कोई नहीं

हाथ उठाए हैं मगर लब पे दुआ कोई नहीं
की इबादत* भी तो वो जिस की जज़ा* कोई नहीं

ये भी वक़्त आना था अब तू गोश-बर- आवाज़* है
और मेरे बरबते-दिल* में सदा* कोई नहीं

आ के अब तस्लीम कर लें तू नहीं तो मैं सही
कौन मानेगा के हम में बेवफ़ा कोई नहीं

वक़्त ने वो ख़ाक उड़ाई है के दिल के दश्त से
क़ाफ़िले गुज़रे हैं फिर भी नक़्शे-पा* कोई नहीं

ख़ुद को यूँ महसूर* कर बैठा हूँ अपनी ज़ात* में
मंज़िलें चारों तरफ़ है रास्ता कोई नहीं

कैसे रस्तों से चले और किस जगह पहुँचे "फ़राज़"
या हुजूम-ए-दोस्ताँ* था साथ या कोई नहीं

इबादत  =  पूजा
जजा  =  प्रतिफल
गोश-बर- आवाज़  =  आवाज़ पर कान लगाए हुए
बरबते-दिल  =  सितार जैसा एक वाद्य यंत्र
सदा  =  आवाज़्
नक़्शे-पा  =  पद-चिह्न
महसूर  =  घिरा हुआ
ज़ात  =  अस्तित्व
हुजूम-ए-दोस्ताँ  =  दोस्तों का समूह

किस को गुमाँ है अब के मेरे साथ तुम भी थे

किस को गुमाँ* है अब के मेरे साथ तुम भी थे
हाय वो रोज़ो-शब* कि मेरे साथ तुम भी थे

यादश बखैर* अहदे-गुजशता* की सोहबतें*
एक दौर था अजब कि मेरे साथ तुम भी थे

बे-महरी-ए-हयात* की शिददत के बावजूद
दिल मुतमईन* था जब कि मेरे साथ तुम भी थे

मैं और तकाबिले-गमे-दौराँ* का हौसला
कुछ बन गया सबब* कि मेरे साथ तुम भी थे

इक खवाब हो गई है रहो-रसम* दोस्ती
एक वहम सा है अब कि मेरे साथ तुम भी थे

वो बज़म मेरे दोस्त याद तो होगी तुम्हें 'फराज़',
वो महफिले-तरब* कि मेरे साथ तुम भी थे

गुमाँ  =  भ्रम
रोज़ो-शब  =  रात दिन
बखैर  =  अचछी याद
अहदे-गुजशता  =  बीते दिनों की
सोहबतें  =  साथ
बे-महरी-ए-हयात  =  मूल्यहीन जीवन
मुतमईन  =   संतुष्ट
सबब  =  कारण
तकाबिले-गमे-दौराँ  =  दुखों के समय की तुलना
रहो-रसम  =  प्रेम व्यवहार
बज़म  =  महफिल
महफिले-तरब  =  अचछी महफिल, खुशी की महफिल

जब कभी चाहे अंधेरों में उजाले उसने

जब कभी चाहे अंधेरों में उजाले उसने
कर दिया घर मेरा शोलों के हवाले उसने

उस पे खुल जाती मेरे शौक की शिद्दत सारी
देखे होते जो मेरे पांव के छाले उसने

जिसका हर ऐब ज़माने से छुपाया मैने
मेरे किस्से सर-ए-बाज़ार उछाले उसने

जब उसे मेरी मोहब्बत पर भरोसा ही ना था
क्यों दिये मेरी वफाओं के हवाले उसने

एक मेरा हाथ ही ना थामा उसने फराज़
वरना गिरते हुए तो कितने ही संभाले उसने

दिल बहलता है कहाँ अंजुमो-महताब से भी

दिल बहलता है कहाँ अंजुमो-महताब से भी
अब तो हमलोग गए दीदा-ए-महताब से भी

(अंजुमो-महताब  =  चाँद तारों; दीदा-ए-महताब  =  चाँद देखने)

रो पडा हूँ तो कोई बात ही ऐसी होगी
मैं कि वाकिफ था तेरे हिज्र के आदाब से भी

(वाकिफ  =  परिचित;  हिज्र  = विरह; आदाब  =  जुदाई के ढंग)

कुछ तो उस आँख का शेवा है खफा हो जाना
और कुछ भूल हुई है दिल-ए-बेताब से भी

(शेवा  = आदत;  दिल-ए-बेताब  =  बेचैन दिल)

ऐ समंदर की हवा तेरा करम भी मालूम
प्यास साहिल की तो बुझती नहीं सैलाब से भी

(करम  =  कृपा;  साहिल  =  किनारे;  सैलाब  =  बाढ)

कुछ तो उस हुस्न को जाने है जमाना सारा
और कुछ बात चली है मेरे अहबाब से भी

(अहबाब  =  दोस्त, परिचित)

दिल कभी गम के समंदर का शनावर था 'फराज़'
अब तो खौफ आता है इक मौजए-पायाब से भी

(शनावर - तैरने वाला;  मौजए-पायाब - छिछला जवार)

दिल को अब यूँ तेरी हर एक अदा लगती है

दिल को अब यूँ तेरी हर एक अदा लगती है
जिस तरह नशे की हालत में हवा लगती है

रतजगे खवाब परेशाँ से कहीं बेहतर हैं
लरज़* उठता हूँ अगर आँख ज़रा लगती है

ऐ, रगे-जाँ* के मकीं* तू भी कभी गौर से सुन,
दिल की धडकन तेरे कदमों की सदा लगती है

गो दुखी दिल को हमने बचाया फिर भी
जिस जगह जखम हो वाँ चोट सदा लगती है

शाखे-उममीद* पे खिलते हैं तलब* के गुनचे*
या किसी शोख के हाथों में हिना लगती है

तेरा कहना कि हमें रौनके महफिल में "फराज़"
गो तसलली है मगर बात खुदा लगती है

लरज़ उठना   =  सहम उठना
रगे जाँ  =  धमनियों
मकीं  =  रहने वाले
सदा  =  आवाज़
वाँ  =  वहाँ
शाखे उम्मीद  =  आशा की शाखा
तलब  =  इच्छा
गुनचे  =  फूल
हिना  =  मेंहदी
तसल्ली  =  संतोष


क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे

क़ुर्बतों* में भी जुदाई के ज़माने माँगे
दिल वो बे-मेहर* कि रोने के बहाने माँगे

हम न होते तो किसी और के चर्चे होते
खिल्क़त-ए-शहर* तो कहने को फ़साने माँगे

अपना ये हाल के जी हार चुके लुट भी चुके
और मुहब्बत वही अन्दाज़ पुराने माँगे

यही दिल था कि तरसता था मरासिम* के लिए
अब यही तर्के-तल्लुक़* के बहाने माँगे

ज़िन्दगी हम तेरे दाग़ों से रहे शर्मिन्दा
और तू है कि सदा आइनेख़ाने* माँगे

दिल किसी हाल पे क़ाने* ही नहीं जान-ए-"फ़राज़"
मिल गये तुम भी तो क्या और न जाने माँगे

क़ुर्बत  =  सामीप्य
बे-मेहर  =  निर्दयी
खिल्क़त-ए-शहर  =  शहरी जनता
मरासिम  =  प्रेम-व्यवहार,सम्बन्ध
तर्के-तल्लुक़  =  संबंध-विच्छेद
आइनेख़ाने  =  वह भवन जिसके चारों ओर दर्पण लगे हों
क़ाने  = आत्मसंतोषी


जुज़ तेरे कोई भी दिन रात न जाने मेरे

जुज़* तेरे कोई भी दिन रात न जाने मेरे
तू कहाँ है मगर ऐ दोस्त पुराने मेरे

तू भी ख़ुश्बू है मगर मेरा तजस्सुस* बेकार
बर्गे -आवारा* की मानिंद* ठिकाने मेरे

शम्अ की लौ थी कि वो तू था मगर हिज्र* की रात
देर तक रोता रहा कोई सरहाने मेरे

ख़ल्क़* की बेख़बरी है कि मिरी रुस्वाई*
लोग मुझको ही सुनाते हैं फ़साने मेरे

लुट के भी ख़ुश हूँ कि अश्कों से भरा है दामन
देख ग़ारतगरे-दिल* ये भी ख़ज़ाने मेरे

आज इक और बरस बीत गया उसके बग़ैर
जिस के होते हुए होते थे ज़माने मेरे

काश तू भी मेरी आवाज़ कहीं सुनता हो
फिर पुकारा है तुझे दिल की सदा ने मेरे

काश तू भी कभी आ जाए मसीहाई* को
लोग आते हैं बहुत दिल को दुखाने मेरे

काश औरों की तरह मैं भी कभी कह सकता
बत सुन ली है मेरी आज ख़ुदा ने मेरे

तू है किस हाल में ऐ जूद-फ़रामोश* मिरे
मुझको तो छीन लिया अहदे-वफ़ा* ने मेरे

चारागर* यूँ तो बहुत हैं मगर ऐ जाने-‘फ़राज़’
जुज़ तेरे और कोई ज़ख़्म न जाने मेरे

जुज  =  सिवाय
तजस्सुस  =  तलाश
बर्गे -आवारा  =  आवारा पत्ता
मानिंद  =  तरह
हिज्र  = विरह
ख़ल्क़  =  दुनिया के लोग
रुस्वाई  =  बदनामी
ग़ारतगरे-दिल  =  दिल लूटने वाला
मसीहाई  =  उपचार
जूद-फ़रामोश  =  जल्द भूलने वाले
अहदे-वफ़ा  =  वफ़ा का वादा, भक्ति का प्रण
चारागर  =  उपचार करने वाले

खामोश हो क्यों, दादे-जफा क्यों नहीं देते

खामोश हो क्यों, दादे-जफा* क्यों नहीं देते
बिस्मिल*  हो तो कातिल को दुआ क्यों नहीं देते

वहशत* का सबब रौजने-जिंदाँ* तो नहीं है
महरो-महो-अंजुम* को बुझा क्यों नहीं देते

इक ये भी तो अंदाजे-इलाजे-गमे-जाँ* है
ऐ चारागरो, दर्द बढा क्यों नहीं देते

मुंसिफ* हो अगर तुम तो कब इंसाफ करोगे ?
मुजरिम हैं अगर हम तो सजा क्यों नहीं देते ?

रहजन* हो तो हाज़िर है मता-ए-दिलो-जाँ* भी
रहबर* हो तो मंजिल का पता कयों नहीं देते

क्या बीत गई अबके 'फराज़' अहले-चमन* पर
याराने-कफस* मुझको सदा* क्यों नहीं देते

दादे-जफा  =  अन्याय की प्रशंसा
बिस्मिल  =  घायल
वहशत  =  भय
सबब  =  कारण
रौजने-जिंदाँ  =  क़ैदखाने का झरोखा
महरो-महो-अंजुम  =  सूरज,चाँद,सितारे
अंदाजे-इलाजे-गमे-जाँ  =  ज़िन्दगी के उपचार का तरीका
मुंसिफ  =  नयायवि्द
मुजरिम  =  अपराधी
रहजन  =  लुटनेवाले
मताए-दिलो-जाँ  =  दिल और जान की दौलत
रहबर  =  पथिक
अहले-चमन  =  चमनवालों
याराने-कफस  =  पिंजरे के साथी, क़ैद केसाथी
सदा  =  आवाज़


हर एक बात न क्यों ज़हर सी हमारी लगे

हर एक बात न क्यों ज़हर सी हमारी लगे
कि हम को दस्ते-ज़माना* से जख्म* कारी* लगे

उदासीयाँ हो मुसलसल* तो दिल नहीं रोता
कभी-कभी हो तो यह कैफीयत* भी प्यारी लगे

बज़ाहिर* एक ही शब* है फराके-यार* मगर
कोई गुज़ारने बैठे तो उमर सारी लगे

इलाज इस दर्दे-दिल-आश्ना* का क्या कीजे
कि तीर बन के जिसे हर्फ़े- ग़मगुसारी* लगे

हमारे पास भी बैठो बस इतना चाहते हैं
हमारे साथ तबियत अगर तुमहारी लगे

'फराज़' तेरे जुनूँ* का खयाल है वरना
यह क्या जरूर की वो सूरत सभी को प्यारी लगे

दस्ते-ज़माना  =  संसार के हाथों
जख्म  =  घाव
कारी  =  गहरे
मुसलसल  =  लगातार
कैफीयत =  दशा
बज़ाहिर  =  प्रत्यक्षत:
शब  =  रात्रि
फराके-यार  =  प्रिय की जुदाई
दर्दे-दिल-आश्ना  =  दर्द को जानने वाले दिल का
हर्फ़े- ग़मगुसारी  =  सहानुभूति के शब्द
जुनूँ  =  उन्माद

जख्म को फूल तो सर-सर को सबा कहते है

जख्म को फूल तो सर-सर को सबा* कहते है
जाने क्या दौर है क्या लोग हैं क्या कहते हैं

अब कयामत है कि जिनके लिए रूक-रूक के चले
अब वही लोग हमें आबला-पा* कहते हैं

कोई बतलाओ कि एक उम्र का बिछडा महबूब
इतिफाकन कहीं मिल जाए तो क्या कहते हैं

यह भी अंदाजे-सुखन* है कि जफा* को तेरी
गमज़ा-व-इशवा*-व-अंदाज-ओ-अदा कहते हैं

जब तलक* दूर है तू तेरी परसितश* कर लें
हम जिसे छू न सकें उसको खुदा कहते हैं

क्या ताज्जुब है कि हम अहले-तमन्ना* को 'फराज़'
वह जो महरूमे-तमन्ना* हैं बुरा कहते हैं

सबा   =  सुबह बहने वाली मंद मंद हवा
आबला-पा   =  जख्मी पैर वाला
इतिफाकन  =  संयोगवश
अंदाजे-सुखन  =  ग़ज़ल का अंदाज
जफा  =  बेवफाई
गमज़ा-व-इशवा  =  हाव भाव
तलक  =  तक
परसितश  =  पूजा
अहले-तमन्ना  =  इच्छा वाले
महरूमे-तमन्ना  =  इच्छा से वंचित रहने वाले


पयाम आए हैं उस यार-ए-बेवफा के मुझे

पयाम* आए हैं उस यार-ए-बेवफा के मुझे
जिसे क़रार ना आया कहीं भुला के मुझे

जूदाईयाँ हों तो ऐसी की उम्र भर ना मिले
फरेब* तो दो ज़रा सिलसिले बढ़ा के मुझे

नशे से कम तो नहीं यादे-यार का आलम*
कि ले उडा है कोई दोश* पर हवा के मुझे

मैं खुद को भूल चुका था मगर जहाँ वाले
उदास छोड़ गये आईना दिखा के मुझे

तुम्हारे बाम* से अब कम नहीं है रिफअते-दार*
जो देखना हो तो देखो नज़र उठा के मुझे

बिछी हुई है मेरे आँसूओं में एक तस्वीर
'फराज़' देख रहा है वह मुस्कुरा के मुझे..

पयाम  =  संदेश
फरेब  =  धोखा
आलम  =  समय
दोश  =  कंधा
बाम  =  छत
रिफअते-दार  =  दोस्ती या प्रेम की ऊँँचाई

मैं तो मकतल में भी किस्मत का सिकंदर निकला

मैं तो मकतल* में भी किस्मत का सिकंदर निकला
कुर्रा-ए-फाल* मेरे नाम का अक्सर निकला

था जिन्हें जौम*, वो दरया भी मुझी में डूबे
मैं के सेहरा* नज़र आता था, समंदर निकला


मैं ने उस जान-ए-बहारां को बुहत याद किया
जब कोई फूल मेरी शाख-ए-हुनर पर निकला

शहर वालों की मुहब्बत का मैं कायल हूँ मगर
मैंने जिस हाथ को चूमा, वो ही खंज़र निकला

तू यहीं हार गया था मेरे बुजदिल दुश्मन
मुझ तन्हा के मुकाबिल, तेरा लश्कर* निकला

मैं के सहरा-ए-मुहब्बत का मुसाफ़िर हूँ 'फ़राज़'
एक झोंका था कि ख़ुशबू के सफ़र पर निकला

मकतल  =  युद्ध का मैदान
कुर्रा-ए-फाल  =  मौत का फरमान
जौम  =  घमंड
सेहरा  =  रेगिस्तान
लश्कर  =  सैनिको की टुकड़ी

क्या रुख्सत-ए-यार की घड़ी थी

क्या रुख्सत-ए-यार की घड़ी थी
हंसती हुई रात रो पड़ी थी

हम खुद ही हुए तबाह वरना
दुनिया को हमारी क्या पड़ी थी

ये ज़ख्म हैं उन दिनों की यादें
जब आप से दोस्ती बड़ी थी

जाते तो किधर को तेरे वहशी
ज़ंजीर-ए-जुनूं कड़ी पड़ी थी

ग़म थे 'फ़राज़' की आंधियां थी
दिल था 'फ़राज़' की पंखुड़ी थी

ख़ुशबू का सफ़र

छोड़ पैमाने-वफ़ा* की बात शर्मिंदा न कर
दूरियाँ ,मजबूरियाँ, रुस्वाइयाँ*, तन्हाइयाँ
कोई क़ातिल ,कोई बिस्मिल,* सिसकियाँ, शहनाइयाँ
देख ये हँसता हुआ मौसिम है मौज़ू-ए-नज़र*

वक़्त की रौ में अभी साहिल* अभी मौजे-फ़ना*
एक झोंका एक आँधी,इक किरन , इक जू-ए-ख़ूँ*
फिर वही सहरा का सन्नाटा, वही मर्गे-जुनूँ[13]
हाथ हाथों का असासा* ,हाथ हाथों से जुदा*


जब कभी आएगा हमपर भी जुदाई का समाँ
टूट जाएगा मिरे दिल में किसी ख़्वाहिश का तीर
भीग जाएगी तिरी आँखों में काजल की लकीर
कल के अंदेशों* से अपने दिल को आज़ुर्दा* न कर
देख ये हँसता हुआ मौसिम, ये ख़ुशबू का सफ़र

पैमाने-वफ़ा  =  वफ़ादारी का संकल्प
रुस्वाइयाँ  =  बदनामियाँ
बिस्मिल  =  घायल
मौज़ू-ए-नज़र  =  चर्चा का विषय
साहिल  =  किनारा,तट
मौजे-फ़ना  =  मृत्यु-लहर
जू-ए-ख़ूँ  =  ख़ून की नदी
मर्गे-जुनूँ  =  दीवानेपन की मृत्यु
असासा  =  पूँजी
जुदा  =  अलग
अंदेशों  =  पूर्वानुमान
आज़ुर्दा  =  पीड़ित
जब तेरी याद के जुगनू चमके

जब तेरी याद के जुगनू चमके
देर तक आँख में आँसू चमके

सख़्त तारीक* है दिल की दुनिया
ऐसे आलम* में अगर तू चमके

हमने देखा सरे-बाज़ारे-वफ़ा*
कभी मोती कभी आँसू चमके

शर्त है शिद्दते-अहसासे-जमाल*
रंग तो रंग है ख़ुशबू चमके

आँख मजबूर-ए-तमाशा* है ‘फ़राज़’
एक सूरत है कि हरसू* चमके

तारीक  =  घनी अँधेरी
आलम  =  ऐसी दशा में
सरे-बाज़ारे-वफ़ा  =  वफ़ादारी के बाज़ार में
शिद्दते-अहसासे-जमाल  =  सौंदर्य की तीव्रता
मजबूर-ए-तमाशा  =  तमाशे के लिए विवश
हरसू  =  हर तरफ़


ख़ुदकुशी*

वो पैमान* भी टूटे जिनको
हम समझे थे पाइंदा*

वो शम्एं भी दाग हैं जिनको
बरसों रक्खा ताबिंदा*

दोनों वफ़ा करके नाख़ुश हैं
दोनों किए पर शर्मिन्दा

प्यार से प्यारा जीवन प्यारे
क्या माज़ी* क्या आइंदा*

हम दोनों अपने क़ातिल हैं
हम दोनों अब तक ज़िन्दा।

ख़ुदकुशी  =  आत्महत्या
पैमान  =  वचन
पाइंदा  =  अनश्वर
ताबिंदा  =  प्रकाशमान
माज़ी  =  अतीत
आइंदा  =  भविष्यकाल

जो चल सको तो कोई ऐसी चाल चल जाना

जो चल सको तो कोई ऐसी चाल चल जाना
मुझे गुमाँ भी ना हो और तुम बदल जाना

ये शोलगी* हो बदन की तो क्या किया जाये
सो लाजमी है तेरे पैरहन* का जल जाना

तुम्हीं करो कोई दरमाँ*, ये वक्त आ पहुँचा
कि अब तो चारागरों* का भी हाथ मल जाना

अभी अभी जो जुदाई की शाम आई थी
हमें अजीब लगा ज़िन्दगी का ढल जाना

सजी सजाई हुई मौत ज़िन्दगी तो नहीं
मुअर्रिखों* ने मकाबिर* को भी महल जाना

ये क्या कि तू भी इसी साअते-जवाल* में है
कि जिस तरह है सभी सूरजों को ढल जाना

हर इक इश्क के बाद और उसके इश्क के बाद
फ़राज़ इतना आसाँ भी ना था संभल जाना

शोलगी  =  अग्नि ज्वाला
पैरहन  =  वस्त्र
दरमाँ  =  दवा, इलाज, हल
चारागर  =  डॉक्टर
मुअर्रिख  =  इतिहास कार
मकाबिर =  कब्र का बहुवचन,
साअते-जवाल  =  ढलान का क्षण


तू कि अन्जान है इस शहर के आदाब समझ

तू कि अन्जान है इस शहर के आदाब* समझ
फूल रोए तो उसे ख़ंद-ए-शादाब* समझ

(आदाब  =  ढंग ,शिष्टाचार,  ख़ंद-ए-शादाब  =  प्रफुल्ल मुस्कान)

कहीं आ जाए मयस्सर* तो मुक़द्दर* तेरा
वरना आसूदगी-ए-दहर* को नायाब* समझ

(मयस्सर  =  प्राप्य,  मुक़द्दर  =  भाग्य,  आसूदगी-ए-दहर  =  संतोष का युग,  नायाब  =  अप्राप्य)

हसरत-ए-गिरिया* में जो आग है अश्कों में नहीं
ख़ुश्क आँखों को मेरी चश्म-ए-बेआब* समझ

(हसरत-ए-गिरिया  =  रोने की इच्छा,  चश्म-ए-बेआब  =  बिना पानी की सरिता)

मौजे-दरिया* ही को आवारा-ए-सदशौक़* न कह
रेगे-साहिल* को भी लबे-तिश्ना-सैलाब* समझ

(मौजे-दरिया  =  नदी की लहर, आवारा-ए-सदशौक़  =  कुमार्गी, रेगे-साहिल  =  तट की मिट्टी,  लबे-तिश्ना-सैलाब  =  बाढ़ के लिए तरसते हुए होंठ)

ये भी वा* है किसी मानूस* किरन की ख़ातिर*
रोज़ने-दर* को भी इक दीदा-ए-बेख़्वाब* समझ

(वा  =  खुला हुआ,  मानूस  =  परिचित, रोज़ने-दर  =  द्वार का छिद्र,  दीदा-ए-बेख़्वाब  =  जागती आँख)

अब किसे साहिल-ए-उम्मीद* से तकता है ‘फ़राज़’
वो जो इक कश्ती-ए-दिल थी उसे ग़र्क़ाब* समझ

(साहिल-ए-उम्मीद  =  आशा के तट,  ग़र्क़ाब  =  डूबी हुई)

रोज़ की मुसाफ़त से चूर हो गये दरिया

रोज़ की मुसाफ़त* से चूर हो गये दरिया
पत्थरों के सीनों पे थक के सो गये दरिया

(मुसाफ़त  =  यात्रा)

जाने कौन काटेगा फसल लालो-गोहर* की
रेतीली ज़मीनों में संग* बो गये दरिया

(लालो-गोहर  =  हीरे मोतियों की खेती,  संग  =  पत्थर)

ऐ सुहाबे-ग़म*! कब तक ये गुरेज़* आँखों से
इंतिज़ारे-तूफ़ाँ* में ख़ुश्क* हो गये दरिया

(सुहाबे-ग़म  =  दुख के मित्रो,  गुरेज़  =  उपेक्षा,  इंतिज़ारे-तूफ़ाँ  =  तूफ़ान की प्रतीक्षा में,  ख़ुश्क  =   सूख गये)

चाँदनी से आती है किसको ढूँढने ख़ुश्बू
साहिलों के फूलों को कब से रो गये दरिया

(साहिलों  =  तटों)

बुझ गई हैं कंदीलें* ख़्वाब हो गये चेहरे
आँख के जज़ीरों* को फिर डुबो गये दरिया

(कंदीलें  =  दीपिकाएँ,  जज़ीरों  =  टापुओं)

दिल चटान की सूरत सैले-ग़म* पे हँसता है
जब न बन पड़ा कुछ भी दाग़ धो गये दरिया

(सैले-ग़म  =  दुखों की बाढ़)

ज़ख़्मे-नामुरादी* से हम फ़राज़ ज़िन्दा हैं
देखना समुंदर में ग़र्क़* हो गये दरिया

(ज़ख़्मे-नामुरादी  =  असफलता के घाव,  ग़र्क़  =  डूब गये)

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