Friday 26 January 2018

लुत्फ़-ए-सफ़र

लुत्फ़-ए-सफ़र में हम कुछ ऐसे बहल गए
मंजिल पे पंहुचा, देखा और आगे निकल गए
[ लुत्फ़-ए-सफ़र = pleasure of travelling]
गुज़रे जब कूचा-ए-जाना से हम आज
बरसों के दबे तमन्ना, दिल में मचल गए
[कूचा-ए-जाना = lane of beloved ]

'मुज़्तरिब'

वो यही कुछ सोचकर

वो यही कुछ सोचकर बाज़ार में ख़ुद आ गया,
क़द्र हीरे की है कब बाज़ार से रहकर अलग ।
काम करने वाले अपने नाम की भी फ़िक्र कर,
सुर्ख़ियाँ बेकार हैं अख़बार से रहकर अलग ।
सिर्फ़ वे ही लोग पिछड़े ज़िन्दगी की दौड़ में,
वो जो दौड़े वक़्त की रफ़्तार से रहकर अलग ।
हो रुकावट सामने तो और ऊँचा उठ ‘कुँअर’
सीढ़ियाँ बनतीं नहीं दीवार से रहकर अलग ।
– कुँअर बेचैन

ज़ख़्म क्यों गहरे हुए

हम कहाँ रुस्वा हुए रुसवाइयों को क्या ख़बर,
डूबकर उबरे न क्यूँ गहराइयों को क्या ख़बर ।
ज़ख़्म क्यों गहरे हुए होते रहे होते गए,
जिस्म से बिछुड़ी हुई परछाइयों को क्या ख़बर ।
क्यों तड़पती ही रहीं दिल में हमारे बिजलियाँ,
क्यों ये दिल बादल बना अंगड़ाइयों को क्या ख़बर ।
कौन सी पागल धुनें पागल बनातीं हैं हमें,
होंठ से लिपटी हुई शहनाइयों को क्या ख़बर ।
किस क़दर तन्हा हुए हम शहर की इस भीड़ में,
यह भटकती भीड़ की तन्हाइयों को क्या ख़बर ।
– कुँअर बेचैन

हमसे तो यूँ ही

अजीब शख्स था कैसा मिजाज़ रखता था
साथ रह कर भी इख्तिलाफ रखता था
मैं क्यों न दाद दूँ उसके फन की
मेरे हर सवाल का पहले से जवाब रखता था
वो तो रौशनियों का बसी था मगर
मेरी अँधेरी नगरी का बड़ा ख्याल रखता था
मोहब्बत तो थी उसे किसी और से शायद
हमसे तो यूँ ही हसी मज़ाक रखता था

खाली खाली न यूँ दिल का मकां रह जाये

खाली खाली न यूँ दिल का मकां रह जाये
तुम गम-ए-यार से कह दो, कि यहां रह जाये
इस लिये ज़ख्मों को मरहम से नहीं मिलवाया
कुछ ना कुछ आपकी कुरबत का निशां रह जाये