Monday 29 December 2014

दर्द मिन्नत-कशे-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ, बुरा न हुआ
जमा करते हो कयों रकीबों को ?
इक तमाशा हुआ गिला न हुआ
हम कहां किस्मत आज़माने जाएं
तू ही जब ख़ंजर-आज़मा न हुआ
कितने शरीं हैं तेरे लब कि रकीब
गालियां खा के बे मज़ा न हुआ
है ख़बर गरम उनके आने की
आज ही घर में बोरीया न हुआ
क्या वो नमरूद की ख़ुदायी थी
बन्दगी में मेरा भला न हुआ
जान दी, दी हुयी उसी की थी
हक तो यह है कि हक अदा न हुआ
ज़ख़्म गर दब गया, लहू न थमा
काम गर रुक गया रवां न हुआ
रहज़नी है कि दिल-सितानी है
ले के दिल, दिलसितां रवाना हुआ
कुछ तो पढ़ीये कि लोग कहते हैं
आज 'ग़ालिब' ग़ज़लसरा न हुआ !!!

No comments:

Post a Comment