Sunday 2 November 2014

ज़िंदगी के लिए

हर एहतिमाम है दो दिन की ज़िंदगी के लिए
सुकून-ए-क़ल्ब नहीं फिर भी आदमी के लिए

तमाम उम्र ख़ुशी की तलाश में गुज़री
तमाम उम्र तरसते रहे ख़ुशी के लिए

न खा फ़रेब वफ़ा का ये बे-वफ़ा दुनिया
कभी किसी के लिए है कभी किसी के लिए

ये दौर-ए-शम्स-ओ-क़मर ये फ़रोग़-ए-इल्म-ओ-हुनर
ज़मीन फिर भी तरसती है रौशनी के लिए

कभी उठे थे जो खुर्शीद-ए-ज़िंदगी बन कर
तरस रहे हैं वो तारों की रौशनी के लिए

सितम-तराज़ी-ए-दौर-ए-ख़िरद ख़ुदा की पनाह
के आदमी ही मुसीबत है आदमी के लिए

रह-ए-हयात की तारीकियों में ऐ 'ज़ाहिद'
चराग़-ए-दिल है मेरे पास रौशनी के लिए

"अबुल मुजाहिद 'ज़ाहिद'"

No comments:

Post a Comment