Sunday, 2 November 2014

डूब जाता है कभी

कभी साया है कभी धुप मुकद्दर मेरा
होता रहता है यूँ ही क़र्ज़ बराबर मेरा

टूट जाते हैं कभी मेरे किनारे मुझमे
डूब जाता है कभी मुझमे समंदर मेरा

किसी सेहरा में बिछड़ जायेंगे सब यार मेरे
किसी जंगल में भटक जायेगा लश्कर मेरा

बा वफ़ा था तो मुझे पूछने वाले भी न थे
बे वफ़ा हूँ तो हुआ नाम भी घर घर मेरा

कितने हँसते हुए मासूम अभी आते लेकिन
एक ही धुप से कुम्भला गया मंज़र मेरा

अथर नफीस

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