Sunday 2 November 2014

मिटा के गई है

ख़ुशी क़र्ज़ अपना चुका के गई है
पता वो गमों को बता के गई है
नहीं ख्वाब दिखते मुझे हसरतों के
ज़खीरे खुशी के जला के गई है
नहीं थी गुलों की महक ऐ नसीबां
खिज़ा जो चमन को मिटा के गई है
मज़ार पर आके किसी रोज़ मेरी
कब्र पे दिया वो जला के गई है
हवा तू बता दे खता-ए-दरख्तों
पुराने शज़र क्यूं गिरा के गई है


पूनम 'चाँद'

No comments:

Post a Comment