Sunday 2 November 2014

मेरे नासेहा मुझे ये बता

यहाँ काँप जाते हैं फ़लसफ़े ये बड़ा अजीब मक़ाम है
जिसे अपना अपना ख़ुदा कहें उसे सज्दा करना हराम है

मेरी बे-रूख़ी से न हो ख़फ़ा मेरे नासेहा मुझे ये बता
जो नज़र से पीता हूँ मैं यहाँ वो शराब कैसे हराम है

जो पतिंगा लौ पे फ़िदा हुआ तो तड़प के शमा ने ये कहा
इसे मेरे दर्द से क्या ग़रज़ ये तो रौशनी का ग़ुलाम है

शब-ए-इंतिज़ार में बारहा मुझे ‘अनवर’ ऐसा गुमाँ हुआ
जिसे मौत कहता है ये जहाँ वो किसी के वादे का नाम है

(अनवर मिर्जापुरी)

No comments:

Post a Comment