Sunday 2 November 2014

ज़रा आसमान रहने दो

ज़रा शिक़स्तगी, थोड़ी उड़ान रहने दो
बहुत ज़मीन, ज़रा आसमान रहने दो

बुलंदियों के लिए सीढियां हज़ार रहें
मगर ज़मीन तलक़ एक ढलान रहने दो

कहां वो ज़िस्म, कहां आग रही है बाकी
चंद किस्से हैं मगर दरमियान रहने दो

हमारे दुश्मनों तुमसे दुआ सलाम रहे
तेरे शहर में हमारा मकान रहने दो

मेरी शिक़स्त के पीछे वज़ह तुम्ही होगे
यक़ीन मत दो मगर यह गुमान रहने दो

मिटा दो दाग मेरे सीने से बेशक़ कोई
पुराने ज़ख्म के एक दो निशान रहने दो

तेरी पनाह में आकर हमें न होश रहे
हमारे ज़िस्म में इतनी थकान रहने दो

ज़रा ज़रा कभी बेचैन भी करो हमको
ज़रा ज़रा सा मगर इत्मीनान रहने दो

ध्रुव गुप्त

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